बुधवार, 25 मई 2011


क्योंकि हम ढीठ जो हैं


मई २०११ अंक   

बके मुख पर है कालिख किसको कौन लजाये रे!’ लेकिन हम सबके साथ-साथ अपने को भी लजा रहे हैं, फिर भी हमें लाज नहीं आती। हम पूरी तरह निर्लज्ज हो चुके हैं। 
जब से मैंने होश संभाला; तब से ही भ्रष्टाचार के रोने-गाने की आवाज मेरे कानो में घुलती रही है। संभवतः आपके साथ भी ऐसा ही होता हो।  आपने कभी इस पर विचार किया है कि ऐसा क्यों होता है? शायद इसलिए कि हमारा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सिस्टम पटरी पर ठीक से फीट नहीं किया गया है। जिस दिन इसे फीट कर दिया जायेगा, उसी दिन सब ठीक हो जायेगा। लेकिन इसे ठीक करेगा कौन? क्योंकि सब के मुख पर तो कालिख पुता हुआ है, कौन आयेगा सामने इसे ठीक करने को? आप को विश्वास नहीं होता तो आप सौ व्यक्ति को एक जगह बुलाकर भ्रष्टाचार पर गोष्ठी करवा लीजिए, सौ के सौ व्यक्ति तरह से तरह से भ्रष्टाचार पर आख्यान-व्याख्यान दे देता हुआ चला जायेगा, लेकिन एक भी व्यक्ति उसमें से ऐसा नहीं सामने आयेगा, जो अपने को पहला भ्रष्ट व्यक्ति साबित करे। तो आखिर भ्रष्टाचार करता कौन है? इस प्रश्न का उत्तर कौन देगा? इसका उत्तर कैसे मिलेगा? लगता है सृष्टि की समाप्ति तक इस यक्ष प्रश्न का उत्तर हम नहीं ढूंढ़ पायेंगे। क्योंकि हम ढीठ जो हैं। 

रविवार, 10 अप्रैल 2011

हिंदी की राजनीति और आदिवासी साहित्य




10 अप्रैल रविवार 2011 को रांची में
'हिंदी की राजनीति और आदिवासी साहित्यविषय पर एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी
10 अप्रैल रविवार 2011 को रांची में एक दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी एवं आदिवासी साहित्यकार सम्मान समारोह का आयोजन होगा। 'हिंदी की राजनीति और आदिवासी साहित्यविषय पर आयोजित इस समारोह में झारखंड सहित कई राज्यों के झारखंडी साहित्यकार जुटेंगे। वर्ष 2010 के केन्द्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित संताली नाटककार श्री भोगला सोरेन आयोजन के मुख्य अतिथि जबकि साहित्य अकादमी से ही बाल साहित्य के लिए सम्मानित बोयहा विश्वनाथ टुडूनिर्मला पुतुल एवं जनजातीय एवं क्षेत्राीय भाषा विभाग की पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. कुमारी वासंती विशिष्ट अतिथि होंगे। यह आयोजन आदिवासी एवं क्षेत्राीय साहित्यकारों के प्रमुख संगठन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की ओर से किया जा रहा है।

अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे ने बताया कि ग्लोबलाइजेशन के दौर में झारखंडी अस्मिता का संकट पहले से और गहरा हो गया है। झारखंड की सभी आदिवासी एवं क्षेत्राीय भाषाएं विलुप्ति के कगार पर हैं। राष्ट्रभाषा हिंदी अभी भी औपनिवेशिक गुलामी की मानसिकता से जूझ रही है। हिंदी के साहित्यकार मठाधीश बनकर आदिवासी एवं क्षेत्राीय भाषा-साहित्य और उसकी अस्मिता के साथ भेदभाव कर रहे हैं।

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

कौन सी क्रांति ला रहे हैं अन्ना ??

आजकल अन्ना हजारे चर्चा में हैं और साथ ही भ्रष्टाचार और जन लोकपाल को लेकर उनका अभियान भी. चारों तरफ अन्ना के गुणगान हो रहे हैं, कोई उन्हें गाँधी बता रहा है तो कोई जे.पी. कोई कैंडल-मार्च निकाल रहा है तो कोई उनके पक्ष में धरने पर बैठा है. राजनेता से लेकर अभिनेता तक, मीडिया से लेकर युवा वर्ग तक हर कोई अन्ना के साथ खड़ा नजर आना चाहता है 
लेकिन क्या वाकई अन्ना के इस अभियान का कोई सार्थक अर्थ है ? इस मुहिम का कोई  सकारात्मक अर्थ निकलने जा रहा है. इस देश में भ्रष्टाचार ही एक मुद्दा नहीं है, बल्कि कई और भी ज्वलंत मुद्दे हैं. क्या एक जन लोकपाल आ जाने से सारी समस्याएं छू-मंतर हो जायेंगीं, मानो इसके पास जादू की कोई छड़ी हो और छड़ी घुमाते ही सब रोग दूर हो जाय. 
अन्य देशों में हुए आंदोलनों को देखकर इस भ्रम में रहने वाले कि अन्ना के इस आन्दोलन के बाद भारत में भी क्रांति आ जाएगी, क्या अपनी अंतरात्मा पर हाथ रखकर बता सकेंगें कि वो जब मतदान करते हैं, तो किन आधारों पर करते हैं. चंद लोगों को छोड़ दें तो अधिकतर लोग अपनी जाति-धर्म-परिचय-राजनैतिक दल जैसे आधारों पर ही मतदान करते हैं. उनके लिए एक सीधा-साधा ईमानदार व्यक्ति किसी काम का नहीं होता, आखिरकार वह उनके लिए थाने-कोर्ट में पैरवी नहीं कर सकता, किसी दबंग से लोहा नहीं ले सकता या उन्हें किसी भी रूप में उपकृत नहीं कर सकता. जिस मीडिया के लोग आज अन्ना के आन्दोलन को धार दे रहे हैं, यही लोग उन्हीं लोगों के लिए पेड-न्यूज छापते हैं और उन्हें विभिन्न समितियों के सदस्य और मंत्री बनाने के लिए लाबिंग करते हैं, जिनके विरुद्ध अन्ना आन्दोलन कर रहे हैं. फ़िल्मी दुनिया से जुड़े लोगों का वैसे भी यह शगल है कि जहाँ चैरिटी दिखे, फोटो खिंचाने पहुँच जाओ. 
कहते हैं साहित्य समाज को रास्ता दिखाता है, पर हमारे साहित्यजीवी तो खुद ही सत्ता से निर्देशित होते हैं. कोई किसी सम्मान-पुरस्कार के लिए, कोई संसद में बैठने के लिए तो कोई किसी विश्वविद्यालय का कुलपति बनने के लिए या किसी अकादमी का अध्यक्ष-सदस्य बनने के लिए सत्ता की चारणी करते हैं. पर किसी के पक्ष में वक्तव्य देने में भी सबसे माहिर होते हैं ये कलमजीवी. अन्ना के इस आन्दोलन में भी उनकी भूमिका इससे ज्यादा नहीं है. दो-चार लेख लिखने और पत्र-पत्रिकाओं के एकाध पन्ने भरकर ये अपने काम की इतिवृत्ति समझ लेते हैं. अदालत में सच को झूठ और झूठ को सच साबित करने वाले वकील भले ही अपने पेशेगत प्रतिबद्धतता की आड लें, पर पब्लिक सब जानती है. कितने लोग इस आन्दोलन के समर्थन में अपनी बैरिस्टरी छोड़ने को तैयार हैं ? 
फेसबुक-ट्विटर-आर्कुट पर अन्ना के पक्ष में लिखने वाले कित्ते गंभीर हैं, यह अभी से दिखने लगा है. अभी कुछ दिनों पहले लोग बाबा रामदेव का गुणगान कर रहे थे, अब अन्ना का, फिर कोई और आयेगा, पर हम नहीं बदलेंगें. हम भीड़ का हिस्सा बनकर चिल्लाते रहेंगें कि गद्दी छोडो, जनता आती है (दिनकर) और लोग हमारे ही घरों पर कब्ज़ा कर बेदखल कर देंगें. एक शेषन जी भी आए थे. कहा करते थे राष्ट्रपति तो चोंगे वाला साधू मात्र है, उसे कोई भी शक्ति नहीं प्राप्त है, पर रिटायर्ड होते ही राष्ट्रपति का चुनाव लड़ बैठे. 
गाँधी और जे.पी तो इस देश में मुहावरा बन गए हैं. हमारी छोडिये, जो उनकी बदौलत सत्ता की चाँदी काट रहे हैं वे भी उन्हें जयंती और पुण्यतिथि में ही निपटा देते हैं. अन्ना के बहाने अपने को चर्चा में लाने की हर कोई कोशिश कर रहा है, पर सवाल है कि अन्ना के बिना इस आन्दोलन का क्या वजूद है...शायद कुछ नहीं. आज अन्ना हट जाएँ तो हर कोई अपने बैनर और कैंडल उठाकर अपनी खोल में सिमट जायेगा. हम भीड़ का हिस्सा बनकर नारा लगाना जानते हैं, पर खुद क्यों कोई पहल क्यों नहीं करते. हम कभी मुन्नाभाई से प्रेरित होकर गांधीगिरी करते हैं, कभी दूसरे से. याद रखिये दूसरों की हाँ में हाँ मिलाकर और मौका देखकर भीड़ का हिस्सा बन जाने से न कोई क्रांति आती है और न कोई जनांदोलन खड़ा होता है. इसके लिए जरुरी है कि लोग स्वत: स्फूर्त प्रेरित हों और वास्तविक व्यवहार में वैसा ही आचरण करें. जिस दिन हम अपनी अंतरात्मा से ऐसा सोच लेंगें उस दिन हमें किसी बाहरी रौशनी (कैंडल) की जरुरत नहीं पड़ेगी. 
आकँक्षा यादव 

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

क्या जंतर मंतर बन पायेगा तहरीर चौक ?

रात एक पत्रकार मित्र का फोन आया। बेहद हड़बड़ाये हुए थे। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो पूरे पगलाये हुए थे। फोन उठाते ही दुआ सलाम के बिना ही बोले कि “अंकुर बाबू कल जंतर मंतर चलना है। अन्ना हजारे हमारे जैसे लोगों के लिए अनशन पर बैठे हैं। हमें उनका समर्थन जरूर देना होगा। गोली मारो पत्रकारिता को और आओं अब समाज सेवा करते हैं।” चूंकि मित्र हमसे उम्र में बड़े थे इसलिए फोन पर तो उन्हें हां कहने के अलावा कुछ नहीं कह पाया, लेकिन फोन रखते हुए उन्हें मन ही मन जमकर गालियां दी। सोचा साला कल फालतू की छुट्टी करनी पड़ जायेगी। यहां खुद की तो सेवा हो नहीं पाती, समाज की क्या खाक करेंगे। खैर, रात काटकर सुबह उनके फोन का इंतजार करते हुए जब बहुत समय बीत गया तो सोचा फोन कर ही लूं। पता नहीं जिंदा भी है या मर गया होगा। फोन उठाते ही उन्होने झट से इतना ही बोला कि “भाई आज कुछ जरूरी काम आ गया है, इसलिए आज नही जा पाऊंगा। रविवार को चलेंगे।” उनकी बात सुनकर हमने भी अपना बस्ता उठाया और निकल लिए दफ्तर की तरफ। मगर रास्ते भर अपने आप से एक सवाल पूछता रहा। क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा? अन्ना हजारे क्या कर रहे हैं? क्यूं कर रहे हैं? किसलिए कर रहे हैं? किसके लिए कर रहे हैं? और क्या हमें उनका साथ देने के लिए जंतर मंतर पर होना चाहिए? ऐसे सवाल अगर मेरे जैसे करोड़ों लोगों से पूछा जाये तो जानते है कि जवाब क्या होगा। बाबा पगलाए हुए है, हमे उनसे क्या लेना देना, हम क्यूं इस पचड़े में पड़े, भाई समय नहीं है, हजारे कौन सा हमारा रिश्तेदार है। ये चंद जवाब है। कुछ ओर लोगों से पूछ लिजिये। शायद कुछ नया जवाब भी मिल जायेगा। ऐसा नहीं है कि अन्ना कुछ गलत कर रहे हैं या भारत की जनता कुछ गलत सोच रही है। गलत है तो हमारी निजी परिस्तिथियां। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करने पर तो मजबूर करती है लेकिन हम लोगों के लिए भूख हड़ताल पर बैठे अन्ना हजारे के लिए सोचने का समय भी नहीं देती। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने बच्चों का भविष्य संवारने की तो याद दिलाती हैं लेकिन देश के भविष्य के लिए अनशन कर रहे अन्ना का समर्थन करने की सोच मन में भी नहीं आनी देती। वो परिस्तिथियां जो बीमारी से पीडि़त अपनी पत्नी का इलाज कराने का तो ध्यान दिलाती हैं लेकिन भ्रष्टाचार नाम की बीमारी से परेशान देश के बारे में सोचने का ख्याल भी दिल और दिमाग में नहीं लानी देती। और अगर यही परिस्तिथियां चलती रही तो मेरा सवाल कि क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा, भी इन्ही परिस्तिथियों की भेंट चढ़ जायेगा। अन्ना हजारे जिस जनलोकपाल बिल की बात कर रहे हैं उस पर बहुत लोग अपना ज्ञान बांट चुके हैं। उस बिल की सफलता के लिए सबसे आवश्यक तत्व है जनता। जिस जनता के लिए हजारे ये सब कर रहे हैं आखिर वो जनता कहां है। आप ये भी जान लीजिये कि जंतर मंतर पर मौजूद अधिकतर लोग वो हैं जो या तो दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया जैसे संस्थानों के तथाकथित बौद्धिक और विद्रोही किस्म के लोग हैं या फिर जनता की नजरों में समाज सेवा नाम का फालतू काम करने वाले लोग। लेकिन देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए अन्ना हजारे जिस आम जनता के लिए ये बिल पास कराना चाहते हैं वो आम जनता कहां है। आखिर वो खामोश क्यूं है? क्यूं भारत की जनता भी मिस्र की तरह नहीं हो जाती? क्यूं जंतर मंतर तहरीर चौक नहीं बन जाता? अगर इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में लगेंगे तो आप पायेंगे कि भारत में इस तरह के अनशनों को हमेशा राजनीतिक स्टंट के तौर पर ही देखा जाता है। हालांकि लोग इन अनशनों को गांधी की परंपरा के तौर पर देखते हैं लेकिन उन लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी का जीवन भी देश सेवा के साथ राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता था। तहरीर चौक से अगर आप हजारे के अनशन की तुलना करते हैं तो ये महसूस होता है कि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। तहरीर चौक में मौजूद लोगों में शायद ही कोई बड़ी हस्ती थी। वो लड़ाई आम लोगों के द्वारा आम लोगों के लिए ही लड़ी गई थी। वहां मंच पर बैठे हुए समाज सेवकों की शक्ल में राजनेता नहीं थे जो बाबा रामदेव जैसे राजनीति में उतरने की इच्छा रखने वाले लोगों को तो मंच पर जगह देते हैं लेकिन भाजपा या कांग्रेस के नेताओं से उन्हें नफरत है। तहरीर चौक ने लोकतंत्र का असली मतलब विश्व को समझाया है। लेकिन जंतर मंतर में मामला बिल्कुल अलग है। यहां कई ऐसे चेहरों को पहले इकठ्ठा किया गया है जो मीडिया प्रेमी है और हर वक्त मीडिया की नजरों में रहते हैं। हजारों की संख्या में यहां ऐसे भगवाधारी लोग भी शामिल है जो गाहे बगाहे नक्सलियों का समर्थन करते हैं। अन्ना का मानना है कि लोकतंत्र में जनता जो भी चाहती है उसकी अनदेखी उसका प्रतिनिधि नहीं कर सकता। सफल एवं सार्थक लोकतंत्र के लिए जन और जनप्रतिनिधियों में सामंजस्य की आवश्यकता है। उम्मीद की जा सकती है कि 1965 की जंग में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर चुके अन्ना कि अपनी ही सरकार के खिलाफ ये जंग अंजाम तक पहुंच पायेगी। क्रमश:- इस शनिवार ओर रविवार को मेरी तो छुट्टी है और मेरे दोस्त का फोन आये या न आये, लेकिन मैं तो जंतर मंतर जा रहा हूं। शायद हम लोगों के द्वारा उठाया गया कदम ही भारत को भ्रष्टाचार की इस लाइलाज बीमारी से मुक्त करने में कारगार साबित हो। आइये अन्ना का साथ दें, उनकी अच्छी सोच का साथ दे और उनके विचारों का साथ दें लेकिन मंच पर चिपक कर बैठे समाज सेवक टाइप के राजनेताओं का नहीं। 
अंकुर विजयवर्गीय

बुधवार, 16 मार्च 2011

सजेस्टित होलियाना फायदे


डॉ0 बालेन्दु शेखर तिवारी 
जब गलियों में धवलतम कपड़ों का सहज इस्टमैनकलरीकरण  हो रहा हो और बालकलियों से टपकायमान रंगीन बरसात से मुहल्ले के तमाम हीरो-हीरोइनगण के प्रोग्राम अपसेट हो रहा हो, तो ऐसे नितान्त होलियाना माहौल में कोई साहित्यकार क्या कर सकता है?
आप के मुहल्ले में ‘होली है, होली है’ के धरावाहिक शोर के साथ अनेकानेक रंगों से सराबोर हुरिहारों का समूह गली-गली नगरी-नगरी द्वारे-द्वारे घूम रहा हो और पानी के अल्पबचत के सरकारी फरमान के प्रति प्रतिबद्ध रंगभीरू मित्रों को बाथरूम से बाहर निकालने के लिए अधिकांश लोग एकमत हों, तो ऐसे विविध् भारती वातावरण में कोई साहित्यकार क्या कर सकता है? 
ऐसे समय के लिए साहित्यकार बन्धूओं और साहित्यकार भाभियों के सेवार्थ कुछ मंगलकारी फायदे से सजेस्टित किए जा रहे हैं। यह सवाल तब और भी सघन हो जाता है जब आप हिन्दी के कवि हों और आपके लिए विधता ने निजी र्ध्मपत्नी के साथ ही साथ चन्द सालियों का प्रावधन भी किया हो अथवा वक्तजरूरत प्रेरणा देने के लिए एकाध् प्रेमिकाएँ भी मुहैया कर दी हों। सच बताइए कि आप कथाकार, कवि, नाटककार, निबंधकार, सम्पादक, पत्रकार वगैरह-वगैरह हैं तो होली के मौसम में आप क्या करते हैं? ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आसपास होली की धूम हो और आप पूरी गम्भीरता के साथ कमरा बंद कर साहित्य रचने बैठे जाएँ। लेकिन इस होलियाना सीजन में जरा बच के। कहीं ऐसा न हो कि आप जिस कलम से रचना लिखने जा रहे हों, वह मूलतः पिचकारी हो और उस पिचकारीनुमा कलम से रंग निकल कर आपको ही मुखमंडल पर चित्राकारी कर दे। कहीं ऐसा न हो कि गर्मी से व्याकुल होकर आप पंखा चलाएँ और पंखे के डैनों से गुलाल की बारिश होने लगे। कहीं ऐसा न हो कि आप लिखने में तन्मय हों, तभी चुपके-से आकर आप की साली या प्रेमिका आकर गुलालचार करने लगे। इस क्षेत्रा में आपके मित्रा भी दगाबाजी कर सकते हैं। यहाँ तक कि अपने बच्चों की श्रीमाता पर भी विश्वास नहीं कर सकते हैं आप। तो सवाल अंगद के चरण की तरह बना हुआ है कि ऐसे घनघोर होलियाना मौसम में कोई साहित्यकार क्या कर सकता है?
तो हे हिन्दी के होनहार साहित्यकारगण! आपके लिए यही संदेश सजेस्टित किया जा सकता है कि फल की चिंता किए बिना कर्म करें। फल तो अपने आप पकेगा। आज से तीन सौ    साल पहले कविगण नयनों की ओट से होली खेलने वाली सन्नारियों का बखान करते थे। इतनी सात्विक होली सब जमाने में लोग खेलते थे कि इस साल की होली में भींगे हुए कपड़े अगले साल तक नहीं सूखते थे। बेचारे कवियों को भी ऐसी मनभावन होली में शामिल होने का चांस मिलता था। दिन भर कवि होली खेलते थे और रत्रि के प्रथम प्ररह में होली के बारे में रसीले छन्द लिखते थे। होली खेलने के लिए अगर वैसी सन्नारियाँ सीन पर हाजिर हो जाएँ, तो आज भी हिन्दी के अधिकांश कथाकार, नाटककार, पत्राकार वगैरह कविता लिखने लगेंगे। लेकिन आज न तो वैसी रसीली होली है और न महारसीली होली खेलने वालियों का वैसा समूह है। इसके बावजूद होली अवश्य है और आप भी हैं, जोकि साहित्यकार हैं। तो सवाल यह है कि होली में क्या कर सकते हैं आप? हर काम में फायदे ही फायदे तलाशने वाला मनुष्य होली में किस फायदे से लाभान्वित होगा? 
जैसा कि अभी निवेदन किया गया, आप बतौर साहित्यकार अपना काम करने के लिए परमफ्री हैं। इस नए साल के प्रारम्भ में आपने गणतंत्रा दिवस पर कुछ न कुछ लिखा ही होगा। फिर वसंत पंचमी और सरस्वती पूजा पर भी चालू फैशन के अनुसार आपने काव्य रचना की होगी। अब समय आ गया है कि आप होली के बारे में कुछ न कुछ लिखने का कार्यक्रम सम्पन्न करें। न आपको सात सौ सैंतालीस पंक्तियाँ लिखने से कोई रोक सकता है और न होली के मनोवैज्ञानिक/आर्थिक/सामाजिक अध्ययन पर कोई अखबारोचित आलेख लिखने पर कोई बंदिश है। तो यह पहली सलाह आपके लिए सेवा में प्रस्तुत है कि होली पर कुछ न कुछ लिखें अवश्य। फायदे ही फायदे हैं। अर्थ और यश दोनों के चांस उपलब्ध् हैं। 
साहित्यकार को कोशिश करनी चाहिए कि वह जो भोगे, उसे ही जनता के सामने पेश कहे। यह कोई इंसानियत नहीं है कि आप किसी दफ्तर या स्कूल या कॉलेज में करें और शाम में होली के बारे में लिखने लगें। होली पर लिखने के लिए होली में इन्वाल्व होना जरूरी है। इसलिए हे सज्जनों और सज्जनियों, अगर आप साहित्यकार हैं और होली के बारे में कुछ लिखने के लिए आपकी कलम कुलबुला रही है तो कृपया उस पानीपत के मैदान में पहँुच जाइए, जहाँ होली खेलने वालों की सेना सजी है। वहाँ किसी प्राणी को देखकर यह पता लगाना कठिन है कि उन प्राणियों के मुखारविन्द में आँख, कान, नाक, मुँह जैसे तत्त्व कहाँ-कहाँ मौजूद हैं। दूर से ही देख कर ज्ञान हो जाता है कि यह ध्रती वीरों से भरी हुई है। होली के मामले में यह देश विश्वचैम्पियन है और जब तक बना रहेगा, तब तक संसार के अन्य देशों में होली की आदत चालू न हो जाए।  लिहाजा, साहित्यकार को चाहिए कि वह ठीक उसी स्पॉट पर भोगा हुआ यथार्थ प्राप्त करने के लिए पहुँच जाए, जहाँ होली प्रेेमियों का जत्था पूरे उत्साह के साथ शोरकर्म में व्यस्त हो। उस पवित्रा स्थान पर अनुभव की प्रामाणिकता से भीगी हुई रचना अपने-आप प्रकट होगी। 
होली के मौसम में साहित्यकारों के बीच पारस्परिक लातालाती की अपार छूट रहती है। यह एक अतिरिक्त और बोनस किस्म का फायदा प्राप्त होता है कि आप जैसे मन करे वैसे और जिसे मन करे उसे, गालियाँ सादर समर्पित कर सकते हैं। होली के सुअवसर पर इस फायदा-पुराण की कोई सीमा नहीं। आप चाहें तो साहित्यकारों के योग्य कुछ और फायदे भी सजेस्टित कर सकते हैं। 
-6 शिवम, हरिहर सिंह रोड, मोराबादी, राँची-834008    


शनिवार, 12 मार्च 2011

उन्हें अब भी प्रतीक्षा है


अपनी माटी अपनी ही होती है, अपना देश अपना ही होता है, जैसे माँ अपनी होती है, बाप अपना होता है। और, जिस तरह माँ-बाप गुजर जाने के बाद उन की याद हमें ज्यादा शिद्दत से आती है, उसी तरह अपनी माटी और देश भी छूट जाने के बाद हमारी यादों को ज्यादा गहरे से छेड़ते हैं। दुख की बात है कि यही सचाई हम देश में रहते हुए भूल जाते हैं लेकिन यदि आप मेरी बात का विश्वास करें तो अवश्य आप को कहना चाहूँगा कि मुझे अपने देश से बहुत प्यार है। मुझे पता है यहाँ गरीबी बहुत है, दुख बहुत है, विकास के मामले में विश्व के दर्जनों देशों से यह बहुत पीछे है, फिर भी मुझे अपने देश से बहुत प्यार है। मेरे मन में जो इस की छवि है, वह इंग्लैंड-अमेरिका या रूस-चीन की नहीं हो सकती। कुछ बात है जो एकदम खास है और वह सिर्फ इसी देश पर लागू होती है। इस के नाम में एक जादू है, जो जितना हमें आकर्षित करता है, शायद उस से ज्यादा दुनिया के दूसरे देशों को। यह जादू है इस की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा में, इस के दर्शन और विचार में, इस के जीवन-मूल्यों में!

हो सकता है आप दिल्ली-कोलकाता, मुम्बई-चेन्नई जैसे महानगरों या आगरा-पूना, उदयपुर-इंदौर जैसे ऐतिहासिक नगरों में नहीं रहते हों, किसी बड़े तीर्थस्थान या पर्यटन स्थल में भी नहीं हांे, तब भी आप ने, अपने ही शहर में, रंग-बिरंगे विदेशी सैलानियों को अवश्य देखा होगा। प्रायः पृथ्वी के सभी भागों से आने वाले सैलानियों में मर्द-औरतें, युवा-अधेड़  सभी तरह के लोग होते हैं जो भारतीय जीवन और मानस के प्रति अपनी खास उत्सुकता और रुचि रखते हैं। पिछली सदी के शुरुआती ढलान पर बीटनिक और हिप्पी समुदायों में भी भारत के लिए कहीं बढ़-चढ़कर आकर्षण देखा गया, इस के बावजूद कि वे हरमन हेस, राल्फ, वाल्डो, इमर्सन, रोम्याँ रोलाँ और ई.एम.फॉर्स्टर या येट्स और एलियट आदि से शायद ही कोई सीध साम्य बनाते थे। इन में से प्रत्येक को कुछ न कुछ ऐसा यहाँ मिला जो उन्हें कहीं नहीं मिला। यही इस देश की सब से बड़ी विशेषता है। कई बार कागजी लेखे-जोखे और विद्वानों के विवेचन भ्रम अवश्य पैदा करते हैं, लेकिन वह गलत है। 
कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि भारत एक ऐसा देश है, जैसा कोई दूसरा देश नहीं है। यह अनोखा देश है। इस का अनोखापन इस कारण भी बनता है कि यहाँ बहुत कुछ अनपेक्षित-आशातीत ऐसा भी घटित होता है जैसा फिर कहीं नहीं होताऋ हो नहीं सकता। अचानक एक बहुत बड़ी क्रांति हो जाती है, और बिना किसी खून-खराबे के और, थोड़े ही समय बाद, वह क्रांति एक आपदा में बदल जाती है। और तब, फिर एब बार इस देश के लोग किसी अगली क्रांति की प्रतीक्षा में अति सुदीर्घ काल तक आश्वस्त होकर बैठ जाते हैं... जब कोई नया अवतार आएगा और अवश्य आएगा...अभ्युत्थानमर्ध्मस्य संभवामि युगे-युगे! उन्हें विश्वास है! 
इस देश के लोग सर्वाध्कि शांतिप्रिय हैं, उतना ही र्ध्य है उन में और वगैर कभी मुँह से आह-आवाज निकाले वे कितनी भी मुश्किलें और मुसीबतें झेल ले सकते हैं। उन के चरित्रा की सब से बड़ी विशेषता उन की आस्था है। कुछ क्षणों के लिए, किसी मौके पर, उन में चंचलता के लक्षण दिख जा सकते हैं, लेकिन यह उन की प्रकृति में नहीं है। ऐसा तो कभी वर्षों-वर्षों में ही होता है कि वे कुछ कर गुजरने पर आमादा हो जाएँ और अपने ही प्रिय जनों के विरूद्ध विद्रोह कर उठें। उन की आस्था हमेशा उन्हें बचा लेती है। उन का धैर्य कभी जवाब नहीं देता, उन की प्रतीक्षा कभी सवाल नहीं करती। ऐसे अविचल धैर्य और प्रतीक्षा की प्रतिमूर्त्ति बने लोग आप को और कहीं हरगिज नहीं मिलेंगे, कतई नहीं मिलेंगे। और आप यदि किसी दूसरे देश से आते हैं, तब तो यह सब आप को जितना अविश्वसनीय लगेगा, उतना ही आप का आनंदवर्धन भी करेगा। सच, बगैर किसी भरोसे के जिस तरह सो-लेटकर वे किसी आने-न-आने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर सकते हैं, आप कर सकते हैं क्या? उनकी तरह, किसी बस के लिए अपने पंजों पर खड़े होकर आप पूरा दिन गुजार सकते हैं क्या?
सही बात यह है कि आप इंडिया को गाली देंगे, लेकिन आप नहीं देते, क्योंकि सारा दृश्य आप को अत्यंत मनोरंजक लगता है, कि यही अनोखा मनोरंजन तो आप की यात्रा का ध्येय और उपलब्ध् िदोनों है। यदि आप बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों से आगे-पीछे भी उन की जिंदगी में झांकोगे तो आप को और भी समृद्ध  मनोरंजन की सामग्री मिलेगी और आप खुशी से फूले नहीं समाएँगे जब आप अपने देश लौटकर ‘लाइफ इन इंडिया’, ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ या ‘इंडिया-व्हिच सेंचुरी’ जैसी कोई बड़ी और ‘बेस्ट-सेलर’ किताब लिखने की स्थिति में होंगे, उतने ही उत्साहित भी, इस के बावजूद कि न आप लेखक हैं, न पहले कभी आप ने कोई छोटा-सा आर्टिकल ही किया है। आप भी मान जाएँगे कि घोर अनास्था और नास्तिकता के इस दौर में भी उन की आस्था सूर्य की तरह अचल है और उन की आस्तिकता आकाश की तरह बेओर-छोर। वे घोर कष्ट में भी इत्मीनान से प्रतीक्षा कर सकते हैं और, जैसा कि महाकवि मिल्टन ने कहा है, यह भी ईश्वर की सेवा है, कि ऐसे भी वे ईश्वर के प्रिय बन सकते हैं। जो दिया, दियाऋ न दिया, न दियाऋ छीन लिया, छीन लिया। मिल्टन ने अपनी आँखें गँवा दीं और अपने मन को समझा लियाऋ हम तो अपने प्राणों का भी त्याग कर अपने मन को समझा लेते हैं और पूरी आस्था से प्रतीक्षा करते हैं किसी आने वाले स्वर्ग-सुख की, या किसी अगले सुखमय जीवन की!    
संपूर्ण देश जैसे एक प्रतीक्षा-भूमि है, किन्हीं और बड़े चमत्कारों की प्रतीक्षा में भींगी हुई, जो उसे समस्त श्रांति और पीड़ाओं से एकदम मुक्त कर दें। इस देश के दरिद्र, बोझों से लदे और थके हुए लोगों को और क्या चाहिए? जो उन का सपना है, वही उन का विश्वास हैऋ जो उन का सपना है, वही उन का विश्वास हैऋ जो उन का विश्वास है, वही उनका सपना है। वे थक जाते हैंऋ उन का विश्वास नहीं थकता, उन का सपना नहीं थकता, उन की प्रतीक्षा नहीं थकती! एक अलग ही तरह की निर्गुण प्रतीक्षा है यह जो उन्हें जहाँ किसी संघर्ष में उतरने की आवश्यकता को अस्वीकार जाने की युक्ति देती है, वहीं अपनी निरीहताओं में भी जीने की अविजित शक्ति प्रदान करती है। ऐसी प्रतीक्षा असाधरण है, जितनी जैविक, उतनी ही आध्यात्मिक। 
किसी को लग सकता है कि यह कायरों की कौम है, इतिहास से इस के उदाहरण भी निकालकर वह दिखा सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। और इतिहास का क्या है, वह तो बाइस्कोप का तमाशा हैऋ जैसा उस में फोटो डालेंगे, वैसा वह नजर आएगा। कई बार यह भी कहा जाता है कि इस देश के लोग लालची हैं, लोलुप हैं, सिर्फ अपनी-अपनी सोचते हैं, लेकिन ऐसा फिर कहाँ नहीं है? और अगर कुछ ज्यादा वाली बात है तो यह भी हमारी अपनी संस्कृति या परंपरा की वस्तु नहीं है, बल्कि विदेशी आक्रांताओं की घिनौनी कूटनीति की देन है जिस ने हमें तोड़-बाँटकर अलग-अलग और अकेला कर दिया है। हम तो आज भी वसुधैव कुटुंबकम् के सिधयांत को मानव सभ्यता का उच्चतम और अन्यतम आदर्श मानते हैं, अब दुनिया ही हम से छल करती है तो हम क्या करें! 
हम भी अब समझ गए हैं और हमारे देश में ही घुसी हुई यह दुनिया हमें आज भी कम चिंतित नहीं बनाती। हम अपने बँटवारों और अकेलेपन से आज तक नहीं उबर पाए हैं और देश के बाहर से जितनी कोशिशें हो रही हैं, उन से कम देश के भीतर से नहीं हो रही हैं- कि हम इसी तरह बँटे हुए, अकेले-अकेले, अपने ही परिवार और पेट से बंधे हुए, डरे-सहमे जानवरों की तरह पूरी जिंदगी गुजार दें! वे जो कहें, वही सुनेंऋ वे जो सोचें, उसी को रास्ता मानेंऋ वे जो बताएँ, उसी पर चलें। हम भी लाचार, आखिर करें क्या? मार्क्स और लेनिन ने बताया है, क्रांति के लिए भी कुछ प्राथमिक शर्तों का पूरा होना जरूरी होता है और जब तक ऐसा नहीं होता, हमें रुकना है, हमें प्रतीक्षा करनी है। हमें पता है कि देश को एक महान नैतिक क्रांति, एक महान नैतिक सशक्तीकरण चाहिए, लेकिन हमारे हड़बड़ाने-चिचियाने से भी कुछ नहीं होगा। हम बस एकाग्रचित्त होकर प्रतीक्षा करें और यदि हम ऐसा कर सकते हैं तो वह समय भी अवश्य आएगा और क्रांति भी होकर रहेगी। 
और प्रतीक्षा तो हमारी आस्था है, हमारी परंपरा है! ऐसा कौन सा कठिन समय हो सकता है जो हमारी प्रतीक्षा को खंडित कर हमारे संबंधें और व्यवहार को इस हद तक प्रभावित करने में सफल हो जाए कि हम अपने से ही आँखें चुराने लगें, या कोई अलाँ-फलाँ ही हम में हताशा और उग्रता ढूँढ़ने-पाने लगे! सही बात यह है कि हमारी बेचैनियाँ जितनी ज्यादा होती हैं, हमारी प्रतीक्षा भी उतनी ही आनंददायक होती है। झूठ से हमें घृणा है। हमें सत्य चाहिए और सत्य की विजय की प्रतीक्षा में हम जिंदगी ही नहीं, अपनी मौत को भी लाँघ जा सकते हैं। हमारी अतिशय भावुकता को देखकर हमारा प्यार तो लोगों की समझ में आता है, लेकिन हमें शिथिल और निष्क्रिय बताकर वे हमारे साथ अन्याय ही करते हैं। प्रतीक्षा हमारे मनों में जिस एक संपूर्णता की रचना करती है उस का कतई एहसास नहीं होता है उन्हें! वे तो हमारे देश की डाक व्यवस्था को भी गाली ही देंगे लेकिन हम जानते हैं कैसे हमारी डाक व्यवस्था हमारी प्रतीक्षा को दीर्घतर बनाने में, हमारी भावनाओं को उम्र देने में हमारी सहायता करती है। आप कल्पना कीजिए जब बारह-पन्द्रह वर्षों के बाद कोई पोस्टकार्ड अपने गंतव्य पते पर पहुँचता है और संबोध्ति व्यक्ति जीवित ही होता है और उसी शहर के उसी मकान में रहता होता है तो क्या यह किसी चमत्कार से कम होता है? 
संभव है चमत्कार-वगैरह जैसे शब्द का प्रयोग आप को बहुत उचित नहीं लगे, लेकिन किसी भारतीय के मुँह से तो बस यही निकलेगा। खास बात यह नहीं है कि इतने वर्षों के बाद पोस्टकार्ड पहुँचा, खास बात यह भी नहीं है कि इतने वर्षों तक वह था कहाँ, बल्कि खास बात यह है कि इतने वर्षों तक किसी अज्ञात-अँधेरे कोने में दट्टन रहने के बाद वह अचानक उठकर चलने कैसे लगा? बिना किसी प्रेत-प्रेरणा के क्या यह संभव हो सकता है? और यदि आप मालूम करें तो शायद ऐसा ही पाएँ कि अगर पाने वाला नहीं तो कम से कम उस पोस्टकार्ड का लिखने वाला ३रूर अपनी भौतिक-कायिक सीमाओं से आ३ाद हो चुका है। हो सकता है आप पता ही न करें और तब आप के लिए यह भी बहुत आसान होगा कि आप ऐसी किसी संभावना पर थोड़ा-सा मुस्कराकर रह जाएँ, लेकिन क्या आप इस बात से भी इनकार करेंगे कि बीच के इतने वर्षों के बाद जब अचानक एक दिन वह पोस्टकार्ड अपनी  कब्र से बाहर आया तो वह सिर्फ एक साधरण पोस्डकार्ड नहीं रह गया था? एक समाचार बन गया था? और उस से मरे हुए शब्दों की तहों में लगातार साँसें भरती एक प्रतीक्षा स्वयं को भी लाँघकर कालजयी हो गयी थी?
मैं शायद अनुमान कर सकता हूँ कि आप को नाह४ की यह दार्शनिकता पसंद नहीं, लेकिन कौन चाहता है इस दर्द में पड़ना? आखिर क्या करे कोई, जब प्रतीक्षा का वास्तव किसी टीसती प्रतीक्षाहीनता के अवास्तव में रूप ग्रहण करने लगे? सब कुछ बर्बाद करने के बाद भी ग़ालिब अपने इंतजार से नहीं निबट पाए, न बादशाह ज़फर  ही उस से दो इंच आगे निकल पाए। चाहे जिंदगी गुज़र जाए, प्रतीक्षा की व्यर्थता कोई निष्कर्ष बनाती हुई प्रतीत होकर भी, स्वयं कोई निष्कर्ष नहीं बनती। सही बात यह है कि प्रतीक्षा की इसी व्यर्थता के गहरे होते जाते पेट में प्रकृति की अमूर्त सत्ता भी जीव धारण करने लगती है और कुछ, जो संभव जैसा होता है, वही तब सहज संभव लगता है। प्रतीक्षित भी छूट जाता है, लेकिन प्रतीक्षा नहीं छूटती। 
कैसे छूटेगी? यही द्दतु-चक्र है, और जीवन-चक्र भी, खासकर जब आप संघर्ष और  उपलब्धी के दोपाटे के बीचोबीच गुज़रते होते हैं। आप के बाद आप का बेटा गुज़रेगा इन्हीं प्रक्रियाओं और प्रतीक्षाओं से, और क्या आप ऐसे लोगों को नहीं जानते जो एक बेटे के जन्म के बाद फिर उस का बेटा...और उस का बेटा। और भी एक और बेटे की प्रतीक्षा में तीन-चार-पाँच बेटियों के बाप बन जाते हैं... और तब भी प्रतीक्षा होती है, उन्हें उस दूसरे बेटे की जो अब तक पैदा नहीं हुआ। बेटा वह पैदा होता है या नहीं होता है, लेकिन बेटियाँ जो पैदा हो चुकी होती हैं उन के मनों में गुलाबी होती प्रतीक्षाएँ साँवली...काली हो जाती हैं, लेकिन मरतीं नहीं।
सच्ची बात तो यह है कि हमारे देश की सामाजिक-सांस्कृतिक परपंराएँ इतनी गहरी हैं कि वे हमें जितनी सहज, स्वतःजात और विकल्पहीन लगती हैं, उतनी ही ईश्वर की इच्छा की तरह भी। प्रतीक्षाएँ हमारे इन संस्कारों से अविभाज्य हैं, तद्रूप हैं। हम मर जाते हैं, लेकिन हमारी प्रतीक्षाएँ नहीं मरतीं। मैं आज भी नहीं भूल सकता वह दृश्य जब हमारी चाची मरने के तीन-चार रो३ पहले से बेआवा३ हो गयी थीं, लेकिन बीच-बीच में अचानक अपनी बड़ी-बड़ी आँखें खोल देती थीं और आँखों के स२ेद कोयों को घुमा-घुमाकर दोनों बाजू  की दीवारों की दूरी नाप लेती थीं। फिर आँखें बन्द हो जातीं और तब, सन्नाटे में बुद्बुद् उठाती, कोई औरत बोल उठती,  ‘‘लगता है चाचाजी का इंत३ार कर रही हैं।’’ 
मुझे याद है यह एक अधेड़ औरत थी, जो कई वर्ष पहले स्वयं विध्वा हो गयी थी। और सच, तब मुझे भी यही लगा था कि चाची की आँखें दिवंगत चाचा को ही ढूँढ़ रही थीं, कि वह आ जाएँ तो चलें। आज मैं सोचता हूँ तो अटपटा लगता है कि जीवन भर मर्द की इतनी ईयादतियाँ झेलने के बाद मरने के समय कोई औरत फिर अपने उसी ;मरे हुए आततायीद्ध मर्द को ढूँढ़े, कि उसी की प्रतीक्षा में कई-कई दिनों के लिए मृत्यु को भी स्थगित कर दे! सत्य क्या है इस की वैज्ञानिक परीक्षा इतनी आसान नहीं है, फिर भी यहाँ हमारा वास्ता किसी विज्ञान से नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक यथार्थ से है, जिस में सारी विपरीतताओं के  विरूद्ध पति-पत्नी का संबंध् किसी महा-अद्वैत का मूर्त उदाहरण बन जाता है। फिर भी आप शर्तिया नहीं कह सकते कि किसी और देश के लोगों को भी चाचा के लिए, चाची की यह आकंठ प्रतीक्षा समझ में आ ही जाएगी।
इसलिए, गलत नहीं है कि अपना देश सारे देशों से एकदम अलग है और यहाँ का जो बहुत कुछ अजब है, वही इसे अनोखा भी बनाता है। और इस अनोखेपन की रीढ़ है प्रतीक्षा। कुछ भी पाने के लिए आप को यहाँ सिर्२ काम ही नहीं करना है, प्रतीक्षा भी करनी है। दरअसल, वह काम से भी बड़ा काम है। एक कामचलाऊ नौकरी के लिए भी आप को रीजनेबल-अनरीजनेबल कितने भी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। हो सकता है, खासकर सरकार में, जिस नौकरी के लिए आप ने इंटरव्यू इस साल दिया है उस में चयनित होने की चिट्ठी आप को तीसरे साल मिले और तब तक आप कुछ वह काम करने लगे हों जिस की पढ़ाई आपने की ही नहीं। 
मैं जानता हूँ, प्रतीक्षा के अनुभवों में दुख कहीं अध्कि ही घेरता-बाँध्ता है, लेकिन इस से प्रतीक्षा के आकर्षणों में कोई कमी नहीं हो जाती। प्रतीक्षा हम फिर भी करते हैंऋ जैसे सारे दुखों और निराशाओं के बावजूद और विरूद्ध, हम फिर भी जीते हैं। प्रतीक्षा की आत्मा ही जिजीविषा है। यही जिजीविषा हमें बड़े लोगों, बड़े-बड़े अधिकारियों और नेताओं-मंत्रियों के दरवाजों-दट्टतरों और दरबारों में दिन-दिन भर उन की प्रतीक्षा की शक्ति देती है और लगातार कई दिनों तक मायूस लौटने के बाद भी हम फिर उन के दर्शनों के लिए अगले दिन भी वहीं पहुँच जाते हैं। प्रतीक्षा अनंतरूपिणी है, उतनी ही मायामयीऋ उतनी ही अदृश्य भी। आजादी के इतने वर्ष बाद भी, आज तक, सारा देश इसी प्रतीक्षा से बँध हुआ है। 
कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों को प्रतीक्षा होती है बाप से मिलने वाले पैसों की, अपने प्रिय नायक-नायिका की नवीनतम फ़िल्म रिलीज होने की। फ़िल्मों में भी प्रतीक्षाओं को एक खास जगह हासिल है। पहले के ३माने में इन लंबी होती प्रतीक्षाओं में उर्दू गज़लगोई से लबरेज शायरी भरी जाती थी, लेकिन अब एक्शन के जरिए उन्हें अधिक गतिशील और जीवंत बनाया जाता है। कई बार निर्देशक उन पलों को, रोमांचक बनाने के प्रयत्न में, हादसों की हद तक भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकता। और उन उच्छ्वासाकुल रोमांटिकों का तो विश्वास है कि प्रतीक्षा में कुछ ऐसा है जो जितना ही उत्पल है, उतना ही असीमित संभावनाओं से युक्त, उतना ही रचनात्मक, जबकि प्राप्ति सीमित, संक्षिप्त और स्वयं में ही खंडित होती हैऋ कि प्रतीक्षा कहीं गहरे में एक संतोष, एक विश्वास को जन्म देती है, जबकि प्राप्ति एक मोहभंग में स्वयं अपना अंत पा लेती है। 
प्रतीक्षा की यही अंतहीनता जीवन में हमारी सारी उपलब्धियों को भी हमारे संघर्ष से छोटा बना देती है और हमें पता भी नहीं चलता और हम धीरे-धीरे अपने भीतर प्रतीक्षा की एक पक्की संस्कृति विकसित कर लेते हैं जो लगभग हमारे किशोर वय ग्रहण करते-करते ही आकार लेने लगती है। आदमी जैसे-जैसे बड़ा होता है, उस की प्रतीक्षाएँ भी उसी तरह बड़ी होती जाती हैं, उतनी ही कंटकित भी। फिर उन के काँटे भी बड़े होने लगते हैं और तब हम कुछ ऐसी चीजों के घटित होने की प्रतीक्षा करने लगते हैं जो असंभावित नहीं होतीं, लेकिन घटित भी नहीं होतीं। और उस के बाद भी हमें प्रतीक्षा होती है, जाने किस-किस चीज की, जाने किस-किस बात की! न प्रतीक्षाएँ हमें छोड़ती हैं, न प्रतीक्षाओं से हम छूट पाते हैं। शयद हम छूटना भी नहीं चाहते, क्योंकि हम जानते हैं कि उस के बाद हमारे पास कुछ भी नहीं रह जाएगा। 
ऐसे ही चलता है देश, देश के अधिकांश-अधिकांश लोगों का जीवन, जो छोटे-मोटे काम-धंधे नौकरी-चाकरी करके किसी तरह परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। वे नहीं जानते, नये चुनावों के बाद जो नयी सरकार बनती है उससे उन के जीवन में नया क्या होता है, फिर भी उन्हें प्रतीक्षा होती है नये चुनावों की, नयी सरकार की। वही कुछ जो बार-बार होता है, वही नया लगता है उन्हें और उन्हें अब भी प्रतीक्षा है एक नये सूर्योदय की, एक नयी आ३ादी की, एक नये लोकतंत्रा की, जब उन्हें अपने आप पर न शर्म आएगी, न रोना आएगा! 

डॉ0 शिवशंकर मिश्र 
संपर्क: 
327/बी, कडरू, राँची-834002
मो0 09430116631

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

अर्जुन जी... तो आप भी लम्बे समय के लिए स्वीकार किये जायेंगे


34वाँ राष्ट्रीय खेल झारखंड में कई वर्षों से टल रहा था। झारखंड सरकार एवं झारखंडियों के लिए यह खेल एक चुनौती बना हुआ था, उसी तरह 35 वर्षों से लंबित पंचायत चुनाव भी, लेकिन एक झटके में सूबे के मुख्यमंत्राी अर्जुन मुण्डा ने दोनों चुनौती को इस प्रकार स्वीकार किया जैसे मानो बच्चों  का खेल हो। और सचमुच में दोनों चुनौतियों को बच्चों के खेल की तरह ही संपन्न कराकर यह साबित कर दिया कि ‘जहाँ चाह वहाँ राह’ की बात सही है। 
वर्षों से कई अध्किारियों और मंत्रियों ने भ्रष्टाचार और घोटालों का जो टीका झारखंड के माथे पर लगाया था, वह कुछ हद तक धूमिल  हुआ है, लेकिन पूरी तरह मिटा नहीं है। झारखंड के माथे पर सिर्फ घोटाला और भ्रष्टचार का ही कलंक नहीं है, अपितु कई प्रकार के कलंकों का टीका भी है, जिसको मिटाने की चुनौती सभी चुनौतियों से बड़ी है, जिसे अर्जुन मुण्डा को स्वीकार करना होगा। तभी सब कुछ सूबे में ठीक-ठाक हो सकता है। सूबे की 85 प्रतिशत आबादी अभी भी दो जून की रोटी से वंचित है, मूलभूत सुविधओं से वंचित है।  सिर्फ शहरों में कुछ मुट्ठी भर स्वार्थी-बिचौलियों के विकास को ही पूरे सूबे का विकास नहीं माना जा सकता। शहरों में भी 60 प्रतिशत आबादी दो जून की रोटी के लिए तरसती है, ग्रामीण इलाकों का तो कहना ही क्या, जहाँ 2 दिनों पर एक शाम की रोटी मिल पाती है। वहीं सरकार के भ्रष्ट अधिकारियों के कारण अनाज को सरकारी गोदामों में सड़ा दिया जाता है या फिर जमाखोरों, कमीशनखोरों,  बिचौलियों के गोदामों तक पहुंचा दिया जाता है। आवंटित विकास की राशि का बंदरबांट कर ली जाती है। जरूरतमंदों तक नहीं पहुँच पाती। 
अतः श्री मुण्डा को पुनः एक बार खेल वाली इच्छा शक्ति को दिखाने की जरूरत है, यदि आप फेल हुए सिस्टम को दुरुस्त करने की चुनौती को स्वकारेंगे तो आप भी राज्य के लिए लम्बे समय तक स्वीकार किये जायेंगे। आप भी खुश रहेंगे, जनता भी खुश रहेगी। 
अरुण कुमा झा, संपादक