शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

क्या जंतर मंतर बन पायेगा तहरीर चौक ?

रात एक पत्रकार मित्र का फोन आया। बेहद हड़बड़ाये हुए थे। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो पूरे पगलाये हुए थे। फोन उठाते ही दुआ सलाम के बिना ही बोले कि “अंकुर बाबू कल जंतर मंतर चलना है। अन्ना हजारे हमारे जैसे लोगों के लिए अनशन पर बैठे हैं। हमें उनका समर्थन जरूर देना होगा। गोली मारो पत्रकारिता को और आओं अब समाज सेवा करते हैं।” चूंकि मित्र हमसे उम्र में बड़े थे इसलिए फोन पर तो उन्हें हां कहने के अलावा कुछ नहीं कह पाया, लेकिन फोन रखते हुए उन्हें मन ही मन जमकर गालियां दी। सोचा साला कल फालतू की छुट्टी करनी पड़ जायेगी। यहां खुद की तो सेवा हो नहीं पाती, समाज की क्या खाक करेंगे। खैर, रात काटकर सुबह उनके फोन का इंतजार करते हुए जब बहुत समय बीत गया तो सोचा फोन कर ही लूं। पता नहीं जिंदा भी है या मर गया होगा। फोन उठाते ही उन्होने झट से इतना ही बोला कि “भाई आज कुछ जरूरी काम आ गया है, इसलिए आज नही जा पाऊंगा। रविवार को चलेंगे।” उनकी बात सुनकर हमने भी अपना बस्ता उठाया और निकल लिए दफ्तर की तरफ। मगर रास्ते भर अपने आप से एक सवाल पूछता रहा। क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा? अन्ना हजारे क्या कर रहे हैं? क्यूं कर रहे हैं? किसलिए कर रहे हैं? किसके लिए कर रहे हैं? और क्या हमें उनका साथ देने के लिए जंतर मंतर पर होना चाहिए? ऐसे सवाल अगर मेरे जैसे करोड़ों लोगों से पूछा जाये तो जानते है कि जवाब क्या होगा। बाबा पगलाए हुए है, हमे उनसे क्या लेना देना, हम क्यूं इस पचड़े में पड़े, भाई समय नहीं है, हजारे कौन सा हमारा रिश्तेदार है। ये चंद जवाब है। कुछ ओर लोगों से पूछ लिजिये। शायद कुछ नया जवाब भी मिल जायेगा। ऐसा नहीं है कि अन्ना कुछ गलत कर रहे हैं या भारत की जनता कुछ गलत सोच रही है। गलत है तो हमारी निजी परिस्तिथियां। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करने पर तो मजबूर करती है लेकिन हम लोगों के लिए भूख हड़ताल पर बैठे अन्ना हजारे के लिए सोचने का समय भी नहीं देती। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने बच्चों का भविष्य संवारने की तो याद दिलाती हैं लेकिन देश के भविष्य के लिए अनशन कर रहे अन्ना का समर्थन करने की सोच मन में भी नहीं आनी देती। वो परिस्तिथियां जो बीमारी से पीडि़त अपनी पत्नी का इलाज कराने का तो ध्यान दिलाती हैं लेकिन भ्रष्टाचार नाम की बीमारी से परेशान देश के बारे में सोचने का ख्याल भी दिल और दिमाग में नहीं लानी देती। और अगर यही परिस्तिथियां चलती रही तो मेरा सवाल कि क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा, भी इन्ही परिस्तिथियों की भेंट चढ़ जायेगा। अन्ना हजारे जिस जनलोकपाल बिल की बात कर रहे हैं उस पर बहुत लोग अपना ज्ञान बांट चुके हैं। उस बिल की सफलता के लिए सबसे आवश्यक तत्व है जनता। जिस जनता के लिए हजारे ये सब कर रहे हैं आखिर वो जनता कहां है। आप ये भी जान लीजिये कि जंतर मंतर पर मौजूद अधिकतर लोग वो हैं जो या तो दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया जैसे संस्थानों के तथाकथित बौद्धिक और विद्रोही किस्म के लोग हैं या फिर जनता की नजरों में समाज सेवा नाम का फालतू काम करने वाले लोग। लेकिन देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए अन्ना हजारे जिस आम जनता के लिए ये बिल पास कराना चाहते हैं वो आम जनता कहां है। आखिर वो खामोश क्यूं है? क्यूं भारत की जनता भी मिस्र की तरह नहीं हो जाती? क्यूं जंतर मंतर तहरीर चौक नहीं बन जाता? अगर इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में लगेंगे तो आप पायेंगे कि भारत में इस तरह के अनशनों को हमेशा राजनीतिक स्टंट के तौर पर ही देखा जाता है। हालांकि लोग इन अनशनों को गांधी की परंपरा के तौर पर देखते हैं लेकिन उन लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी का जीवन भी देश सेवा के साथ राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता था। तहरीर चौक से अगर आप हजारे के अनशन की तुलना करते हैं तो ये महसूस होता है कि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। तहरीर चौक में मौजूद लोगों में शायद ही कोई बड़ी हस्ती थी। वो लड़ाई आम लोगों के द्वारा आम लोगों के लिए ही लड़ी गई थी। वहां मंच पर बैठे हुए समाज सेवकों की शक्ल में राजनेता नहीं थे जो बाबा रामदेव जैसे राजनीति में उतरने की इच्छा रखने वाले लोगों को तो मंच पर जगह देते हैं लेकिन भाजपा या कांग्रेस के नेताओं से उन्हें नफरत है। तहरीर चौक ने लोकतंत्र का असली मतलब विश्व को समझाया है। लेकिन जंतर मंतर में मामला बिल्कुल अलग है। यहां कई ऐसे चेहरों को पहले इकठ्ठा किया गया है जो मीडिया प्रेमी है और हर वक्त मीडिया की नजरों में रहते हैं। हजारों की संख्या में यहां ऐसे भगवाधारी लोग भी शामिल है जो गाहे बगाहे नक्सलियों का समर्थन करते हैं। अन्ना का मानना है कि लोकतंत्र में जनता जो भी चाहती है उसकी अनदेखी उसका प्रतिनिधि नहीं कर सकता। सफल एवं सार्थक लोकतंत्र के लिए जन और जनप्रतिनिधियों में सामंजस्य की आवश्यकता है। उम्मीद की जा सकती है कि 1965 की जंग में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर चुके अन्ना कि अपनी ही सरकार के खिलाफ ये जंग अंजाम तक पहुंच पायेगी। क्रमश:- इस शनिवार ओर रविवार को मेरी तो छुट्टी है और मेरे दोस्त का फोन आये या न आये, लेकिन मैं तो जंतर मंतर जा रहा हूं। शायद हम लोगों के द्वारा उठाया गया कदम ही भारत को भ्रष्टाचार की इस लाइलाज बीमारी से मुक्त करने में कारगार साबित हो। आइये अन्ना का साथ दें, उनकी अच्छी सोच का साथ दे और उनके विचारों का साथ दें लेकिन मंच पर चिपक कर बैठे समाज सेवक टाइप के राजनेताओं का नहीं। 
अंकुर विजयवर्गीय

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