शनिवार, 12 मार्च 2011

उन्हें अब भी प्रतीक्षा है


अपनी माटी अपनी ही होती है, अपना देश अपना ही होता है, जैसे माँ अपनी होती है, बाप अपना होता है। और, जिस तरह माँ-बाप गुजर जाने के बाद उन की याद हमें ज्यादा शिद्दत से आती है, उसी तरह अपनी माटी और देश भी छूट जाने के बाद हमारी यादों को ज्यादा गहरे से छेड़ते हैं। दुख की बात है कि यही सचाई हम देश में रहते हुए भूल जाते हैं लेकिन यदि आप मेरी बात का विश्वास करें तो अवश्य आप को कहना चाहूँगा कि मुझे अपने देश से बहुत प्यार है। मुझे पता है यहाँ गरीबी बहुत है, दुख बहुत है, विकास के मामले में विश्व के दर्जनों देशों से यह बहुत पीछे है, फिर भी मुझे अपने देश से बहुत प्यार है। मेरे मन में जो इस की छवि है, वह इंग्लैंड-अमेरिका या रूस-चीन की नहीं हो सकती। कुछ बात है जो एकदम खास है और वह सिर्फ इसी देश पर लागू होती है। इस के नाम में एक जादू है, जो जितना हमें आकर्षित करता है, शायद उस से ज्यादा दुनिया के दूसरे देशों को। यह जादू है इस की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपरा में, इस के दर्शन और विचार में, इस के जीवन-मूल्यों में!

हो सकता है आप दिल्ली-कोलकाता, मुम्बई-चेन्नई जैसे महानगरों या आगरा-पूना, उदयपुर-इंदौर जैसे ऐतिहासिक नगरों में नहीं रहते हों, किसी बड़े तीर्थस्थान या पर्यटन स्थल में भी नहीं हांे, तब भी आप ने, अपने ही शहर में, रंग-बिरंगे विदेशी सैलानियों को अवश्य देखा होगा। प्रायः पृथ्वी के सभी भागों से आने वाले सैलानियों में मर्द-औरतें, युवा-अधेड़  सभी तरह के लोग होते हैं जो भारतीय जीवन और मानस के प्रति अपनी खास उत्सुकता और रुचि रखते हैं। पिछली सदी के शुरुआती ढलान पर बीटनिक और हिप्पी समुदायों में भी भारत के लिए कहीं बढ़-चढ़कर आकर्षण देखा गया, इस के बावजूद कि वे हरमन हेस, राल्फ, वाल्डो, इमर्सन, रोम्याँ रोलाँ और ई.एम.फॉर्स्टर या येट्स और एलियट आदि से शायद ही कोई सीध साम्य बनाते थे। इन में से प्रत्येक को कुछ न कुछ ऐसा यहाँ मिला जो उन्हें कहीं नहीं मिला। यही इस देश की सब से बड़ी विशेषता है। कई बार कागजी लेखे-जोखे और विद्वानों के विवेचन भ्रम अवश्य पैदा करते हैं, लेकिन वह गलत है। 
कुल मिलाकर आप कह सकते हैं कि भारत एक ऐसा देश है, जैसा कोई दूसरा देश नहीं है। यह अनोखा देश है। इस का अनोखापन इस कारण भी बनता है कि यहाँ बहुत कुछ अनपेक्षित-आशातीत ऐसा भी घटित होता है जैसा फिर कहीं नहीं होताऋ हो नहीं सकता। अचानक एक बहुत बड़ी क्रांति हो जाती है, और बिना किसी खून-खराबे के और, थोड़े ही समय बाद, वह क्रांति एक आपदा में बदल जाती है। और तब, फिर एब बार इस देश के लोग किसी अगली क्रांति की प्रतीक्षा में अति सुदीर्घ काल तक आश्वस्त होकर बैठ जाते हैं... जब कोई नया अवतार आएगा और अवश्य आएगा...अभ्युत्थानमर्ध्मस्य संभवामि युगे-युगे! उन्हें विश्वास है! 
इस देश के लोग सर्वाध्कि शांतिप्रिय हैं, उतना ही र्ध्य है उन में और वगैर कभी मुँह से आह-आवाज निकाले वे कितनी भी मुश्किलें और मुसीबतें झेल ले सकते हैं। उन के चरित्रा की सब से बड़ी विशेषता उन की आस्था है। कुछ क्षणों के लिए, किसी मौके पर, उन में चंचलता के लक्षण दिख जा सकते हैं, लेकिन यह उन की प्रकृति में नहीं है। ऐसा तो कभी वर्षों-वर्षों में ही होता है कि वे कुछ कर गुजरने पर आमादा हो जाएँ और अपने ही प्रिय जनों के विरूद्ध विद्रोह कर उठें। उन की आस्था हमेशा उन्हें बचा लेती है। उन का धैर्य कभी जवाब नहीं देता, उन की प्रतीक्षा कभी सवाल नहीं करती। ऐसे अविचल धैर्य और प्रतीक्षा की प्रतिमूर्त्ति बने लोग आप को और कहीं हरगिज नहीं मिलेंगे, कतई नहीं मिलेंगे। और आप यदि किसी दूसरे देश से आते हैं, तब तो यह सब आप को जितना अविश्वसनीय लगेगा, उतना ही आप का आनंदवर्धन भी करेगा। सच, बगैर किसी भरोसे के जिस तरह सो-लेटकर वे किसी आने-न-आने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर सकते हैं, आप कर सकते हैं क्या? उनकी तरह, किसी बस के लिए अपने पंजों पर खड़े होकर आप पूरा दिन गुजार सकते हैं क्या?
सही बात यह है कि आप इंडिया को गाली देंगे, लेकिन आप नहीं देते, क्योंकि सारा दृश्य आप को अत्यंत मनोरंजक लगता है, कि यही अनोखा मनोरंजन तो आप की यात्रा का ध्येय और उपलब्ध् िदोनों है। यदि आप बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों से आगे-पीछे भी उन की जिंदगी में झांकोगे तो आप को और भी समृद्ध  मनोरंजन की सामग्री मिलेगी और आप खुशी से फूले नहीं समाएँगे जब आप अपने देश लौटकर ‘लाइफ इन इंडिया’, ‘पीपुल ऑफ इंडिया’ या ‘इंडिया-व्हिच सेंचुरी’ जैसी कोई बड़ी और ‘बेस्ट-सेलर’ किताब लिखने की स्थिति में होंगे, उतने ही उत्साहित भी, इस के बावजूद कि न आप लेखक हैं, न पहले कभी आप ने कोई छोटा-सा आर्टिकल ही किया है। आप भी मान जाएँगे कि घोर अनास्था और नास्तिकता के इस दौर में भी उन की आस्था सूर्य की तरह अचल है और उन की आस्तिकता आकाश की तरह बेओर-छोर। वे घोर कष्ट में भी इत्मीनान से प्रतीक्षा कर सकते हैं और, जैसा कि महाकवि मिल्टन ने कहा है, यह भी ईश्वर की सेवा है, कि ऐसे भी वे ईश्वर के प्रिय बन सकते हैं। जो दिया, दियाऋ न दिया, न दियाऋ छीन लिया, छीन लिया। मिल्टन ने अपनी आँखें गँवा दीं और अपने मन को समझा लियाऋ हम तो अपने प्राणों का भी त्याग कर अपने मन को समझा लेते हैं और पूरी आस्था से प्रतीक्षा करते हैं किसी आने वाले स्वर्ग-सुख की, या किसी अगले सुखमय जीवन की!    
संपूर्ण देश जैसे एक प्रतीक्षा-भूमि है, किन्हीं और बड़े चमत्कारों की प्रतीक्षा में भींगी हुई, जो उसे समस्त श्रांति और पीड़ाओं से एकदम मुक्त कर दें। इस देश के दरिद्र, बोझों से लदे और थके हुए लोगों को और क्या चाहिए? जो उन का सपना है, वही उन का विश्वास हैऋ जो उन का सपना है, वही उन का विश्वास हैऋ जो उन का विश्वास है, वही उनका सपना है। वे थक जाते हैंऋ उन का विश्वास नहीं थकता, उन का सपना नहीं थकता, उन की प्रतीक्षा नहीं थकती! एक अलग ही तरह की निर्गुण प्रतीक्षा है यह जो उन्हें जहाँ किसी संघर्ष में उतरने की आवश्यकता को अस्वीकार जाने की युक्ति देती है, वहीं अपनी निरीहताओं में भी जीने की अविजित शक्ति प्रदान करती है। ऐसी प्रतीक्षा असाधरण है, जितनी जैविक, उतनी ही आध्यात्मिक। 
किसी को लग सकता है कि यह कायरों की कौम है, इतिहास से इस के उदाहरण भी निकालकर वह दिखा सकता है, लेकिन ऐसा है नहीं। और इतिहास का क्या है, वह तो बाइस्कोप का तमाशा हैऋ जैसा उस में फोटो डालेंगे, वैसा वह नजर आएगा। कई बार यह भी कहा जाता है कि इस देश के लोग लालची हैं, लोलुप हैं, सिर्फ अपनी-अपनी सोचते हैं, लेकिन ऐसा फिर कहाँ नहीं है? और अगर कुछ ज्यादा वाली बात है तो यह भी हमारी अपनी संस्कृति या परंपरा की वस्तु नहीं है, बल्कि विदेशी आक्रांताओं की घिनौनी कूटनीति की देन है जिस ने हमें तोड़-बाँटकर अलग-अलग और अकेला कर दिया है। हम तो आज भी वसुधैव कुटुंबकम् के सिधयांत को मानव सभ्यता का उच्चतम और अन्यतम आदर्श मानते हैं, अब दुनिया ही हम से छल करती है तो हम क्या करें! 
हम भी अब समझ गए हैं और हमारे देश में ही घुसी हुई यह दुनिया हमें आज भी कम चिंतित नहीं बनाती। हम अपने बँटवारों और अकेलेपन से आज तक नहीं उबर पाए हैं और देश के बाहर से जितनी कोशिशें हो रही हैं, उन से कम देश के भीतर से नहीं हो रही हैं- कि हम इसी तरह बँटे हुए, अकेले-अकेले, अपने ही परिवार और पेट से बंधे हुए, डरे-सहमे जानवरों की तरह पूरी जिंदगी गुजार दें! वे जो कहें, वही सुनेंऋ वे जो सोचें, उसी को रास्ता मानेंऋ वे जो बताएँ, उसी पर चलें। हम भी लाचार, आखिर करें क्या? मार्क्स और लेनिन ने बताया है, क्रांति के लिए भी कुछ प्राथमिक शर्तों का पूरा होना जरूरी होता है और जब तक ऐसा नहीं होता, हमें रुकना है, हमें प्रतीक्षा करनी है। हमें पता है कि देश को एक महान नैतिक क्रांति, एक महान नैतिक सशक्तीकरण चाहिए, लेकिन हमारे हड़बड़ाने-चिचियाने से भी कुछ नहीं होगा। हम बस एकाग्रचित्त होकर प्रतीक्षा करें और यदि हम ऐसा कर सकते हैं तो वह समय भी अवश्य आएगा और क्रांति भी होकर रहेगी। 
और प्रतीक्षा तो हमारी आस्था है, हमारी परंपरा है! ऐसा कौन सा कठिन समय हो सकता है जो हमारी प्रतीक्षा को खंडित कर हमारे संबंधें और व्यवहार को इस हद तक प्रभावित करने में सफल हो जाए कि हम अपने से ही आँखें चुराने लगें, या कोई अलाँ-फलाँ ही हम में हताशा और उग्रता ढूँढ़ने-पाने लगे! सही बात यह है कि हमारी बेचैनियाँ जितनी ज्यादा होती हैं, हमारी प्रतीक्षा भी उतनी ही आनंददायक होती है। झूठ से हमें घृणा है। हमें सत्य चाहिए और सत्य की विजय की प्रतीक्षा में हम जिंदगी ही नहीं, अपनी मौत को भी लाँघ जा सकते हैं। हमारी अतिशय भावुकता को देखकर हमारा प्यार तो लोगों की समझ में आता है, लेकिन हमें शिथिल और निष्क्रिय बताकर वे हमारे साथ अन्याय ही करते हैं। प्रतीक्षा हमारे मनों में जिस एक संपूर्णता की रचना करती है उस का कतई एहसास नहीं होता है उन्हें! वे तो हमारे देश की डाक व्यवस्था को भी गाली ही देंगे लेकिन हम जानते हैं कैसे हमारी डाक व्यवस्था हमारी प्रतीक्षा को दीर्घतर बनाने में, हमारी भावनाओं को उम्र देने में हमारी सहायता करती है। आप कल्पना कीजिए जब बारह-पन्द्रह वर्षों के बाद कोई पोस्टकार्ड अपने गंतव्य पते पर पहुँचता है और संबोध्ति व्यक्ति जीवित ही होता है और उसी शहर के उसी मकान में रहता होता है तो क्या यह किसी चमत्कार से कम होता है? 
संभव है चमत्कार-वगैरह जैसे शब्द का प्रयोग आप को बहुत उचित नहीं लगे, लेकिन किसी भारतीय के मुँह से तो बस यही निकलेगा। खास बात यह नहीं है कि इतने वर्षों के बाद पोस्टकार्ड पहुँचा, खास बात यह भी नहीं है कि इतने वर्षों तक वह था कहाँ, बल्कि खास बात यह है कि इतने वर्षों तक किसी अज्ञात-अँधेरे कोने में दट्टन रहने के बाद वह अचानक उठकर चलने कैसे लगा? बिना किसी प्रेत-प्रेरणा के क्या यह संभव हो सकता है? और यदि आप मालूम करें तो शायद ऐसा ही पाएँ कि अगर पाने वाला नहीं तो कम से कम उस पोस्टकार्ड का लिखने वाला ३रूर अपनी भौतिक-कायिक सीमाओं से आ३ाद हो चुका है। हो सकता है आप पता ही न करें और तब आप के लिए यह भी बहुत आसान होगा कि आप ऐसी किसी संभावना पर थोड़ा-सा मुस्कराकर रह जाएँ, लेकिन क्या आप इस बात से भी इनकार करेंगे कि बीच के इतने वर्षों के बाद जब अचानक एक दिन वह पोस्टकार्ड अपनी  कब्र से बाहर आया तो वह सिर्फ एक साधरण पोस्डकार्ड नहीं रह गया था? एक समाचार बन गया था? और उस से मरे हुए शब्दों की तहों में लगातार साँसें भरती एक प्रतीक्षा स्वयं को भी लाँघकर कालजयी हो गयी थी?
मैं शायद अनुमान कर सकता हूँ कि आप को नाह४ की यह दार्शनिकता पसंद नहीं, लेकिन कौन चाहता है इस दर्द में पड़ना? आखिर क्या करे कोई, जब प्रतीक्षा का वास्तव किसी टीसती प्रतीक्षाहीनता के अवास्तव में रूप ग्रहण करने लगे? सब कुछ बर्बाद करने के बाद भी ग़ालिब अपने इंतजार से नहीं निबट पाए, न बादशाह ज़फर  ही उस से दो इंच आगे निकल पाए। चाहे जिंदगी गुज़र जाए, प्रतीक्षा की व्यर्थता कोई निष्कर्ष बनाती हुई प्रतीत होकर भी, स्वयं कोई निष्कर्ष नहीं बनती। सही बात यह है कि प्रतीक्षा की इसी व्यर्थता के गहरे होते जाते पेट में प्रकृति की अमूर्त सत्ता भी जीव धारण करने लगती है और कुछ, जो संभव जैसा होता है, वही तब सहज संभव लगता है। प्रतीक्षित भी छूट जाता है, लेकिन प्रतीक्षा नहीं छूटती। 
कैसे छूटेगी? यही द्दतु-चक्र है, और जीवन-चक्र भी, खासकर जब आप संघर्ष और  उपलब्धी के दोपाटे के बीचोबीच गुज़रते होते हैं। आप के बाद आप का बेटा गुज़रेगा इन्हीं प्रक्रियाओं और प्रतीक्षाओं से, और क्या आप ऐसे लोगों को नहीं जानते जो एक बेटे के जन्म के बाद फिर उस का बेटा...और उस का बेटा। और भी एक और बेटे की प्रतीक्षा में तीन-चार-पाँच बेटियों के बाप बन जाते हैं... और तब भी प्रतीक्षा होती है, उन्हें उस दूसरे बेटे की जो अब तक पैदा नहीं हुआ। बेटा वह पैदा होता है या नहीं होता है, लेकिन बेटियाँ जो पैदा हो चुकी होती हैं उन के मनों में गुलाबी होती प्रतीक्षाएँ साँवली...काली हो जाती हैं, लेकिन मरतीं नहीं।
सच्ची बात तो यह है कि हमारे देश की सामाजिक-सांस्कृतिक परपंराएँ इतनी गहरी हैं कि वे हमें जितनी सहज, स्वतःजात और विकल्पहीन लगती हैं, उतनी ही ईश्वर की इच्छा की तरह भी। प्रतीक्षाएँ हमारे इन संस्कारों से अविभाज्य हैं, तद्रूप हैं। हम मर जाते हैं, लेकिन हमारी प्रतीक्षाएँ नहीं मरतीं। मैं आज भी नहीं भूल सकता वह दृश्य जब हमारी चाची मरने के तीन-चार रो३ पहले से बेआवा३ हो गयी थीं, लेकिन बीच-बीच में अचानक अपनी बड़ी-बड़ी आँखें खोल देती थीं और आँखों के स२ेद कोयों को घुमा-घुमाकर दोनों बाजू  की दीवारों की दूरी नाप लेती थीं। फिर आँखें बन्द हो जातीं और तब, सन्नाटे में बुद्बुद् उठाती, कोई औरत बोल उठती,  ‘‘लगता है चाचाजी का इंत३ार कर रही हैं।’’ 
मुझे याद है यह एक अधेड़ औरत थी, जो कई वर्ष पहले स्वयं विध्वा हो गयी थी। और सच, तब मुझे भी यही लगा था कि चाची की आँखें दिवंगत चाचा को ही ढूँढ़ रही थीं, कि वह आ जाएँ तो चलें। आज मैं सोचता हूँ तो अटपटा लगता है कि जीवन भर मर्द की इतनी ईयादतियाँ झेलने के बाद मरने के समय कोई औरत फिर अपने उसी ;मरे हुए आततायीद्ध मर्द को ढूँढ़े, कि उसी की प्रतीक्षा में कई-कई दिनों के लिए मृत्यु को भी स्थगित कर दे! सत्य क्या है इस की वैज्ञानिक परीक्षा इतनी आसान नहीं है, फिर भी यहाँ हमारा वास्ता किसी विज्ञान से नहीं, बल्कि उस सांस्कृतिक यथार्थ से है, जिस में सारी विपरीतताओं के  विरूद्ध पति-पत्नी का संबंध् किसी महा-अद्वैत का मूर्त उदाहरण बन जाता है। फिर भी आप शर्तिया नहीं कह सकते कि किसी और देश के लोगों को भी चाचा के लिए, चाची की यह आकंठ प्रतीक्षा समझ में आ ही जाएगी।
इसलिए, गलत नहीं है कि अपना देश सारे देशों से एकदम अलग है और यहाँ का जो बहुत कुछ अजब है, वही इसे अनोखा भी बनाता है। और इस अनोखेपन की रीढ़ है प्रतीक्षा। कुछ भी पाने के लिए आप को यहाँ सिर्२ काम ही नहीं करना है, प्रतीक्षा भी करनी है। दरअसल, वह काम से भी बड़ा काम है। एक कामचलाऊ नौकरी के लिए भी आप को रीजनेबल-अनरीजनेबल कितने भी समय तक प्रतीक्षा करनी पड़ सकती है। हो सकता है, खासकर सरकार में, जिस नौकरी के लिए आप ने इंटरव्यू इस साल दिया है उस में चयनित होने की चिट्ठी आप को तीसरे साल मिले और तब तक आप कुछ वह काम करने लगे हों जिस की पढ़ाई आपने की ही नहीं। 
मैं जानता हूँ, प्रतीक्षा के अनुभवों में दुख कहीं अध्कि ही घेरता-बाँध्ता है, लेकिन इस से प्रतीक्षा के आकर्षणों में कोई कमी नहीं हो जाती। प्रतीक्षा हम फिर भी करते हैंऋ जैसे सारे दुखों और निराशाओं के बावजूद और विरूद्ध, हम फिर भी जीते हैं। प्रतीक्षा की आत्मा ही जिजीविषा है। यही जिजीविषा हमें बड़े लोगों, बड़े-बड़े अधिकारियों और नेताओं-मंत्रियों के दरवाजों-दट्टतरों और दरबारों में दिन-दिन भर उन की प्रतीक्षा की शक्ति देती है और लगातार कई दिनों तक मायूस लौटने के बाद भी हम फिर उन के दर्शनों के लिए अगले दिन भी वहीं पहुँच जाते हैं। प्रतीक्षा अनंतरूपिणी है, उतनी ही मायामयीऋ उतनी ही अदृश्य भी। आजादी के इतने वर्ष बाद भी, आज तक, सारा देश इसी प्रतीक्षा से बँध हुआ है। 
कॉलेज में पढ़ने वाले लड़कों को प्रतीक्षा होती है बाप से मिलने वाले पैसों की, अपने प्रिय नायक-नायिका की नवीनतम फ़िल्म रिलीज होने की। फ़िल्मों में भी प्रतीक्षाओं को एक खास जगह हासिल है। पहले के ३माने में इन लंबी होती प्रतीक्षाओं में उर्दू गज़लगोई से लबरेज शायरी भरी जाती थी, लेकिन अब एक्शन के जरिए उन्हें अधिक गतिशील और जीवंत बनाया जाता है। कई बार निर्देशक उन पलों को, रोमांचक बनाने के प्रयत्न में, हादसों की हद तक भी इस्तेमाल करने से नहीं चूकता। और उन उच्छ्वासाकुल रोमांटिकों का तो विश्वास है कि प्रतीक्षा में कुछ ऐसा है जो जितना ही उत्पल है, उतना ही असीमित संभावनाओं से युक्त, उतना ही रचनात्मक, जबकि प्राप्ति सीमित, संक्षिप्त और स्वयं में ही खंडित होती हैऋ कि प्रतीक्षा कहीं गहरे में एक संतोष, एक विश्वास को जन्म देती है, जबकि प्राप्ति एक मोहभंग में स्वयं अपना अंत पा लेती है। 
प्रतीक्षा की यही अंतहीनता जीवन में हमारी सारी उपलब्धियों को भी हमारे संघर्ष से छोटा बना देती है और हमें पता भी नहीं चलता और हम धीरे-धीरे अपने भीतर प्रतीक्षा की एक पक्की संस्कृति विकसित कर लेते हैं जो लगभग हमारे किशोर वय ग्रहण करते-करते ही आकार लेने लगती है। आदमी जैसे-जैसे बड़ा होता है, उस की प्रतीक्षाएँ भी उसी तरह बड़ी होती जाती हैं, उतनी ही कंटकित भी। फिर उन के काँटे भी बड़े होने लगते हैं और तब हम कुछ ऐसी चीजों के घटित होने की प्रतीक्षा करने लगते हैं जो असंभावित नहीं होतीं, लेकिन घटित भी नहीं होतीं। और उस के बाद भी हमें प्रतीक्षा होती है, जाने किस-किस चीज की, जाने किस-किस बात की! न प्रतीक्षाएँ हमें छोड़ती हैं, न प्रतीक्षाओं से हम छूट पाते हैं। शयद हम छूटना भी नहीं चाहते, क्योंकि हम जानते हैं कि उस के बाद हमारे पास कुछ भी नहीं रह जाएगा। 
ऐसे ही चलता है देश, देश के अधिकांश-अधिकांश लोगों का जीवन, जो छोटे-मोटे काम-धंधे नौकरी-चाकरी करके किसी तरह परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। वे नहीं जानते, नये चुनावों के बाद जो नयी सरकार बनती है उससे उन के जीवन में नया क्या होता है, फिर भी उन्हें प्रतीक्षा होती है नये चुनावों की, नयी सरकार की। वही कुछ जो बार-बार होता है, वही नया लगता है उन्हें और उन्हें अब भी प्रतीक्षा है एक नये सूर्योदय की, एक नयी आ३ादी की, एक नये लोकतंत्रा की, जब उन्हें अपने आप पर न शर्म आएगी, न रोना आएगा! 

डॉ0 शिवशंकर मिश्र 
संपर्क: 
327/बी, कडरू, राँची-834002
मो0 09430116631

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