मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

मरे हुए स्वाभिमान के साथ गणतंत्र-गान


हर साल की तरह इस वर्ष भी हम गणतंत्र दिवस मनाने की तैयारी में लगे हैं। अपने मरे हुए स्वाभिमान के साथ। मरे हुए स्वाभिमान इस लिए कि 62 वर्षों के बाद भी हम जिस प्रकार राष्ट्रीय भाषा तय नहीं कर पाए, उसी प्रकार राष्ट्रीय चरित्र का भी निर्माण नहीं कर पाए। 
किसी भी तंत्र के सुन्दर स्वास्थ्य के लिए राष्ट्रीय चरित्र का होना परम आवश्यक होता है, लेकिन अपने भारत में अभी तक इसका अभाव बना हुआ है। ऐसे में गणतंत्र-गान करना, एक औपचारिक गान-समारोह बन कर रह जाता है। सिर्फ तिरंगा फहरा देने भर से हमारे लोकतंत्र-गणतंत्र के मूलभाव जिन्दा नहीं रह सकते। आज यह मात्र रस्मआदायगी भर का त्योहार बन कर रह गया है। इसके मूल भाव के पूरे नहीं होने के कारण ही आज देश की 62 प्रतिशत आबादी गुलामी के समय से भी बदतर जिन्दगी जीने को मजबूर है। बुनियादी सुविधओं से वंचित। उन्हें उचित न्याय नहीं मिलता, लाखों लोग न्याय की आस में परलोक सिधार गये, और बाकी लोग लाइन में बैठे हुए हैं। यदि ये अदालती व्यवस्था पर बोलेंगे तो उन्हें फांसी पर चढ़ना पड़ सकता है, वहीं मुल्क के दुश्मन की हिफाजत पर करोड़ों रुपये खर्च किये जायेंगे। अपने देश के लोग; वकील दुश्मनों की दलाली में सामने खड़े नजर आयेंगे। यह सब इसलिए कि वोट की राजनीति की बुनियाद पर चलने वाले तंत्र का राष्ट्रीय स्वाभिमान मर चुका है। 
लोकतंत्र की काया आज लुंज-पुंज हो गयी है। इस काया को स्वस्थ एवं न्यायकारी बनाने की जरूरत है, तभी जाकर हमारे राष्ट्रीय चरित्र, स्वाभिमान की गरिमा बनी रहेगी, अन्यथा कुछ मुट्ठी भर लोग इस देश को चाबुक मार-मार कर चलाते रहेंगे। निरीह जनता हाँफते, काँखते हुए कोल्हू के बैल की तरह गोल-गोल घूमती रहेगी। 

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