पूरी दुनिया तबाह हैए अपने ही आचरणों से। जितने ही तरक्की के रास्ते हम तलाशते जाते हैंए इसके लिए संसाधन जुटाते जाते हैंए उतनी ही हमारा जीवन अशांत और बेचैन होता हुआ चला जाता है। एक प्रवृत्ति जो व्यक्ति से होकर समूहों तक संस्थान का रूप धारण कर लेती है। और वही संस्थान अपने पक्ष में गलत प्रवृत्तियों को तर्कसंगत बना डालता है। फिर वर्चस्व की प्रवृति ताकतवर हो जाती है। और यही प्रवृत्ति दुनिया की जनता को तबाह करने में जुट जाती है। चाहे वह वैश्विक स्तर पर बने संगठन हो या क्षेत्रीय स्तर पर सभी का एक ही मकसद होता है .व्यक्ति.समाज और मुल्क को अशांत करना।
यहाँ एक प्रश्न उठता है कि आखिर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शांति के पक्ष में कई संगठन तो पहले से काम कर ही रहे हैंए तो फिर उनकी भूमिका क्या होती है कि हर दिन मुल्क में कोई.न.कोई बड़े खौफनाक मनुष्य और मानवता को मारने वाले वारदात हो जाते हैंघ्
एक मजबूत मुल्क कमजोर मुल्क की जमीन हड़पते चले जा रहे हैंए तो दूसरी ओर अपने से कमजोर जनता और मुल्क को तबाह करने में अपनी शक्तियों का प्रदर्शन करते नजर आते हैं। आखिर क्योंघ् क्यों शांति.संगठन के नाम पर वैश्विक स्तर परड्रामेबाजी चलायी जा रही हैघ्
दुनिया के बड़े.बड़े मुल्कों में आधुनिक जीवन शैली के लिए एक से एक अनुसंधान एवं विकास कार्य किये जा रहे हैंए बाजार तैयार किये जा रहे हैं। इसपर अरबों.खरबों रुपये खर्च किये जा रहे हैंए लेकिन हमारे हृदय और संगठन की अपराध.वृत्ति की मुक्ति के लिए अनुसंधान एवं विकास क्यों नहीं किये जातेघ् युद्ध के सामान और युद्ध के पक्ष में युद्ध और युद्ध से बचाव के लिए संसाधन जुटाये जाते हैं। इसके लिए भी बाजार तलाश और तैयार किये जाते हैं। लेकिन ऐसी वृत्ति व्यक्तिए समाज और संगठन के हृदय में न पनपेए पर शोध् कार्य क्यों नहीं किये जातेघ् बेहतर मनुष्य बनाने के प्रयास बन्द क्यों हो गए हैंघ्
बात समझ में आती है कि आदिम युग में हम सभ्य एंव सुसंस्कृत नहीं थे। अभावग्रस्त थे। लूटने और छिनने की प्रवृत्ति का जन्म अभाव के कारण हुआए लेकिन आज तो हम दूसरे ग्रहों को भी जीतने की ओर अग्रसर हैं। फिर हमारे आदिम युगीन अभाव से उपजे अपराध पर अंकुश अब क्यों नहीं लग पा रहा हैघ् अपराध्.वृत्ति की वृदधि तो विश्वव्यापी महँगाई की तरह रोज.ब.रोज बढ़ रही है। क्योंघ् इसके रास्ते के रोड़े कौन बने हुए हैंघ् उन्हें क्या हटाया नहीं जा सकताघ् यह हम ष्आधुनिक ए असभ्य और अपसंस्कृतिष् के युग के निर्माण में लगे हुए तो नहीं हैं?
अरुण कुमार झा
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