‘इंसाफ की डगर पे बच्चों दिखाओ चलके, ये देश है तुम्हारा नेता तुम्हीं हो कल के’ गंगा जमुना फिल्म के इस गीत के दर्शन में हम भारत वासियों के लिए चरित्रा की डगर को प्रशस्त करने की ताकत की झलक दिखाई देती हैं, लेकिन क्या हम इस ‘दर्शन’ को आज तक आत्मसात कर पाये? इसका जवाब है ‘नहीं’। आखिर क्यों? ये ‘नहीं’ को ‘हाँ’ में बदलने की क्षमता हम कब प्राप्त कर पायेंगे? आज यह सवाल भारत के सारे सवालों से बड़ा है। इसके जवाब पर ही हमारा भारतीय दर्शन टिका हुआ है। जो अब सिर्फ किताबों में और शेखी बघारने के लिए ही बचा रह गया है। उपर्युक्त सवालों को हम ‘हाँ’ के स्तर पर नहीं सुलझा लेते, तब तक हमारा भारतीय दर्शन खोखला-के-खोखला ही रहेगा। आज इस सवाल के महत्वपूर्ण विषय पर गहन चिंतन करने का वक्त आ गया है।
आज हमारे जीवन-दर्शन से ‘इंसाफ’ समाप्त हो चला है। आज के हमारे नेता ‘इंसाफ की डगर’ के ‘तप’ से भय खाते हैं। क्योंकि ‘तप’ बिना त्याग के सम्भव नहीं। सो हमारे नेता त्याग से भागते हैं। और रातों-रात सम्पूर्ण ऐशवर्य और व्यक्तिगत वैभव के लिए ‘इंसाफ’ की डगर को छोड़ बेईमानी की डगर पर चल पड़े हैं। जिसका परिणाम हमारे आने वाली पीढ़ी के चरित्र-दर्शन को नरक में बदल कर रख देगा। तब हमारे पास कुछ नहीं बचेगा। दर्प के लिए।
हमारा सारा जीवन-दर्शन आज राजनीति से प्रभावित है, परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से। ऐसे में तो हमें और भी सावधनी पूर्वक अपने राष्ट्रीय चरित्र को बचाने के लिए व्यक्तिगत चरित्र को सबल बनाने की जरूरत है। इंसाफ की डगर पर हमें मजबूती से पाँव रखने की जरूरत है, न कि डरने की। और ‘डरे हुए नेता’ हमारे देश, समाज और हमें कहा ले जायेंगे! उनसे हम इंसाफ की अपेक्षा कैसे कर सकते हैं? ऐसे वक्त में हमारे नेता को और हमें भी सिर्फ और सिर्फ ‘गाँधी दर्शन’ की डगर को ही अपनाना ज्यादा श्रेयस्कर होगा। इससे शायद हम और हमारे नेता बहुत हद तक ‘तपी’ हो जायेंगे। और फिर धीरे-धीरे इंसाफ की डगर तक हम आत्मविश्वासपूर्वक पहुँच-चलने लगेंगे। तब इस तप पर दर्प का अनुभव भी हम करने लगेंगे।
अरुण कुमार झा
सटीक...
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