शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

झारखंड के ये प्रजापति!

किसी भी तंत्र सिस्टम में जब प्रजापति (राष्ट्रपति/प्रधनमंत्री/राज्यपाल/मुख्यमंत्री/मंत्रियों) को राष्ट्र/राज्य के भविष्य की चिन्ता न होकर अपने और अपनी कुर्सी के भविष्य की चिन्ता सताने लगे और फिर वो अपने ही हित की रक्षा में सारे तंत्र का गैरजिम्मेदराना इस्तेमाल करने लगे, तो निरीह प्रजा का क्या होगा ? सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 
आज झारखंड राज्य भी ऐसे ही प्रजापतियों का शिकार हो गया है। प्रजापति राज्य के ग्रह-नक्षत्र की चिन्ता छोड़, अपनी कुर्सी को बचाने की चिन्ता में पंडितों/ ज्योतिषियों के चक्कर में रात-दिन लगे रहते हैं। इन प्रजापतियों के स्वहित और स्वार्थब आचरण से तंत्र की सेहत पर बुरा असर पड़ता है।  तंत्र के संचालन में लगा एक-एक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से काम करने लगता है। फलस्वरूप तंत्र में कई छेद हो जाते हैं। तब जिम्मेदारी के भाव का घोर अभाव उनमें दिखने लगता है। फिर जरूरत मंद प्रजा को अपने वाजिब ;रोटीद्ध हक को पाने के लिए दर-दर भटकना पड़ता है। इनके हक की आवाज को गैर जिम्मेदार तंत्र विद्रोह के स्वर और आतंकी करार देते हैं। ऐसे कारणों से तंत्र का असली रूप प्रजा नहीं देख पाती, और इस तंत्र से उनके मन में  कभी-कभी घृणा के भाव उपजने लगते हैं, जो किसी तंत्र को कलंकित करने के लिए काफी है। बड़ी बात और गंभीर बात है यह। 
इस तंत्र का एक दूसरा पहलू भी अभी-अभी हमें देखने को मिला। राजाभाषा का मूल भाव इस राज में गौण हो गया, दिखा। राज्यपाल की देहरी पर अपनी हिन्दी बुरी तरह अपमानित हुई दिखी। और हर दिन हो भी रही है। हमें आजाद हुए 63 साल हो गए, बावजूद इसके हमारे देश के प्रजापति (झारखंड के राज्यपाल और इनके जैसे कई और भी) हिन्दी नहीं सीख पाये, इससे ज्यादा दुर्भाग्य की बात और क्या हो सकती है, आजादी के संदर्भ में।  ऐसे प्रजापति से देश और राज्य का कहिए, क्या भला हो सकता है?
तीसरी ओर हमारे तंत्र में कई ऐसे अधिकारियों ,  जिनके भरोसे यह तंत्र जिंदा है, को कभी-कभी क्षूद्र नेता-दलाल-ठेकेदार-चोर-बेमान अभियंता के कुत्सित कारनामों से दो-चार होना पड़ता है। कभी-कभी विकास कार्य भी उनके नेग चढ़ जाते हैं। ऐसी स्थिति आखिर किसके कारण है? इन्हीं प्रजापतियों के कारण ही तो। हमारा प्रजातंत्र यहाँ आकर बुरी तरह असफल हो जाता हैं। विचारिए कि इस स्थिति से हम कैसे निकल सकते हैं। इससे आगे क्या-क्या होगा, इसकी चिन्ता भी तो हमें ही करनी चाहिए न! 

संपाद्कीय

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