शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

कविता में राष्ट्रीयता की तस्वीर

ब्रिटिश राजनीतिविज्ञानी जम्स टकर और उनके समानधर्मी कुछ अन्य विश्लेषकों ने बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में राष्ट्र की अनेक नई-पुरानी, अपनी-पराई विशिष्ट परिभाषाओं का उपयोग करते हुए यह फरमाया था कि वास्तव में भारत कोई राष्ट्र ही नहीं है।  यह बयान तब सामने आया, जब 1857 के विफल विद्रोह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी को इंग्लैंड का रास्ता दिखा दिया था और समूचे देश में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरूद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन अपनी शक्ल ले चुका था। भारत को एक राष्ट्र के तौर पर नकारने की विचारधारा जेम्स टकर ने तब प्रस्तुत की, जब समूचे देश में राष्ट्रीयता एक लहर की तरह व्याप्त थी। कहना न होगा कि इस समय तक सम्पूर्ण भारतीय साहित्य ने राष्ट्रीय भाव पूरे वेग के साथ प्रवाहित था। राष्ट्र के प्रति, स्वाधीनता के प्रति मन में अनगिनत आस्थाआंे और भावनाओं का प्रसार भारत की सभी भाषाओं और बोलियों द्वारा अनवरत हो रहा है। आज यह सोच कर भी मन रोमांचित होता है कि इतिहास के एक सुदीर्घ कालखंड में अनगिनत लोग मातृभूमि पर बिना संकोच न्योछावर हो रहे थे। राम प्रसाद बिस्मिल के एक लोकप्रिय गीत की पंक्तियाँ है:-
‘भारत न रह सकेगा हरगिज गुलामखाना
आजाद होगा, होगा, आता है वह जमाना।
खूँ खौलने लगा है हिन्दुस्तानियों का
कर देंगे जालिमों का हम बन्द जुल्म ढाना।
परवाह अब किसे है जेल ओ दमन की प्यारों
इक खेल हो रहा है फाँसी पे झूल जाना।
भारत वतन हमारा भारत के हम हैं बच्चे
भारत के वास्ते है मंजूर सिर कटाना।‘
यही वह समय था, जब राष्ट्रीयता का एक अपरिहार्य आस्था के रूप में सर्वस्वीकृत हो चुकी थी और अनगिनत रचनाकार राष्ट्रभाव को समग्रता से अपना चुके थे। ऐसे समय ब्रिटिश जेम्स टकर और उन जैसे तमाम लोगों की टिप्पणी मनोरंजन का मसाला बन कर रह गई। इस समय तो सम्पूर्ण भारतीय कविता में बलिदानों और संघर्षों से ओतप्रोत राष्ट्रीयता की भावना पूरी तरह व्याप्त थी।
राष्ट्रीय भावना के साथ हिन्दी कविता का संबंध पृथ्वीराज चैहान, छत्रसाल और शिवाजी के बहाने वीररसात्मक उर्जा के कारण पहली बार स्थापित हुआ। लेकिन 1857 से पहले राष्ट्रीय भाव का चेहरा वही नहीं था, जो बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की भारतीय कविता के दर्पण में झलका। मैथिली शरण गुप्त, माखन लाल चतुर्वेदी, नवीन, वल्लतोल, नजरूल इस्लाम, नागेश, सुब्रहमण्य भारती, निराला, सत्येन्द्र नाथ दत्त, सुभद्रा कुमारी चैहान, जफर अली, गंगादास मेहर, हुंदराज दुखायल आदि-आदि अनगिनत भारतीय कवियों की कतारें उपलब्ध हैं, जिनकी रचनाकारी में इस देश की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक अस्मिता की सारी हलचलें मिलती हैं। इस जमीन पर कालांतर में दिनकर, भारतीदासन, कुवेंपु, कुमार अशान, साहिर लुधियानवी, कैफी आजमी, सुन्दरम, विष्णु डे, कुसुमाग्रज आदि कवियों ने सामाजिक-राष्ट्रीय जागरण का नवतर शंखनाद किया। इस दौर की राष्ट्रीय कविताएँ आजादी की लड़ाई मंे शामिल थीं। अपनी मार्केटिंग के प्रति पूरी तरह चिंताहीन और ब्रिटिश शासन द्वारा जब्त किए जाने के भय से मुक्त इन कविताओं में आजादी के तराने थे, जो जनता की भावनाओं को जगाने में पूरी तरह सक्षम थे। भारतीय भाषाओं की प्रयुक्ति-गलियों में प्रभात फेरी के समय, जेल जाने के समय, राजनीतिक सभाओं के आदि-अंत में राष्ट्रीय कविताओं ने आजादी की लड़ाई में अपना योगदान किया।
यह कोई नई बात नहीं थी। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने 1871 की ‘कविवचन सुधा’ के सिद्धांत वाक्य में ‘‘स्वत्व निज भारत गहै’’ की कामना की थी। अपने उपन्यास ‘आनन्दमठ; में बंकिमचन्द्र ने 1872 में ही शस्यश्यामला मातृभूमि की वंदना का गीत रचा था- वंदे मातरम्। लगभग समूचे देश के स्वाधीनता सेनानियों के लिए ‘वंदे मातरम्’ एक सम्बोधन, एक संकल्प बन गया। श्यामलाल पार्षद का झण्डागीत ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा’ जिन दिनों लिखा गया, उन्हीं दिनों रवीन्द्र नाथ ने ‘जन गण मन अधिनायक’ की रचना भी की। यही वह समय था, जब अनेक किताबें शासन द्वारा प्रतिबंधित हुईं और रचनाकार विदेशी सरकार के कोपभाजन बने। ‘भारत माता की पुकार’, ‘व्यग्र बम के गोले’, ‘स्वराज की गूँज’, ‘खून के छींटे’, ‘क्रांति गीतांजली’ जैसे कई काव्य संग्रह उन दिनों ऐसे जब्त और प्रतिबंधित हुए कि आज उनकी प्रतियाँ बहुत खोजने पर भी नहीं मिलेगी। देश प्रेम से बलिदान तक की सीधी यात्रा कराने में समर्थ उन दिनों की कविताएँ राष्ट्रीयता के वृहत्तर स्वरूप को उजागर करती रहीं। तत्कालीन कवियों को पराधीन देश की जनता की परेशानियोें और आकांक्षाओं की गहरी समझ थी। वे स्वयं जनता के ही अभिन्न अंग थे- मामूली लोगों की यातनाओं और दुश्वारियों को झेलते हुए। तभी 15 अगस्त 1947 से पहले की हिन्दी कविता में राष्ट्रीयता का स्वर गुलाम राष्ट्र की बेचैनी का संवाहक है। स्वाधीनता का आन्दोलन देशानुराग, देश दुर्दशा, उत्सर्ग की प्रेरणा और पराधीनता से मुक्ति की आकांक्षा का परिणाम था। तत्कालीन भारतीय भाषाओं/ बोलियों में राष्ट्रीयता का अर्थ इन्हीं मूल्यों और चिन्ताओं से जुड़ा था। शिष्ट कविता में ही नहीं, लोकगीतों में भी राष्ट्रीयता का यह पैगाम मुखरित हुआ।
राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए चल रहा संघर्ष भारत की आजादी के साथ समाप्त हुआ। इसके साथ ही राष्ट्रीयता का अर्थ बदल गया और राष्ट्रीय कविता का दायित्व परिवर्तित हो गया। मातृभूमि के लिए प्राणों की बाजी लगाने वाले और राष्ट्रहित में अपनी रचनात्मक ऊर्जा झोंक देने वाले लोग क्रमशः अनुपस्थित हो गए। विघटन, अलगाव, यांत्रिकता, स्खलन और व्यावसायिकता का यह ऐसा दौर है, जिसमें राष्ट्रीय कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में छा जाती है। हमने 1962 में, 1965 में, 1971 में और फिर 1999 में चीन अथवा पाकिस्तान के साथ हुए संघर्षों के समय राष्ट्रीय कविता की बाढ़ का साक्षात्कार किया है। राष्ट्रीय चेतना से सराबोर ऐसी कविताएँ एक फैशन के अधीन मौसम विशेष में आज भी लिखी जा रही है। होली के समय हमारे कवि पूरी देह हुई है फागुन, राग रंगा मन है’ जैसी कविताएँ लिखने लगते हैं और दीपावली के दिनों में ‘हँस रहे दीपक हजारों मुस्कराती हैं, दिवाली’ टाइप गीत गाने लगते हैं। इसी तरह हिन्दी दिवस के सीजन में ‘हिन्दी भारत की बिन्दी है’ लिखने वाले कवि पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के अवसर पर पेश करने के लिए राष्ट्रीयता से भरपूर कविताएँ तैयार करते हैं। स्वाधीनता दिवस और गणतंत्र दिवस के दिन ‘हे मातृभूमि तुझको शतशत नमन’ शैली की कविताएँ हिन्दी, ही नहीं, हर भारतीय भाषा में लिखी जाती है। राष्ट्रीयता का यह मौसम होता है, साल में दो दिन। इसके बाद कविगण दूसरे मौसमों के योग्य रचनाओं के उत्पादन में व्यस्त हो जाते हैं। सवाल यह है कि क्या राष्ट्रीयता सिर्फ दो दिनों का जश्न है? क्या स्वाधीनता सेनानी इसीलिए शहीद हुए थे कि हम अपने देश के प्रति अपनी आंतरिक श्रद्धा को एक औपचारिकता, एक रस्म की तरह निपटा दें।
आवश्यकता है उस राष्ट्रीयता की, जिसकी स्वतंत्रता सेनानियों और उनके समकालीन कवियों ने बार-बार संकेत किया था। यह देशप्रेम क्रिकेट या हाकी के मैदान में नहीं उपजता है। यह राष्ट्रीयता खेतों या कारखाने से नहीं आती। यह तो हृदय में उपजने वाली स्थायी उदात्त भावना है, जिसका विकास और विस्तार राष्ट्र को सशक्त बनाता है। इस राष्ट्रीयता को मौसमी कविताएँ अनुकूलता नहीं देती हैं। राष्ट्रीयता तो कविता की आत्मा बनकर चुनौतियों का सामना करती है। तभी यह आवाज कविता से गूँजती रहेगी।
 ‘हर  मौत  के  मारे  भी  मरे  हैं  न  मरेंगे
 हम जिन्दा थे, हम जिन्दा हैं, हम जिन्दा रहेंगे।
डॉ. बालेन्दुशेखर तिवारी

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