शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

धारावाहिक में बर्बरता

वर्तमान समाज में दूरदर्शन संचार का सबसे सशक्त माध्यम है। टीवी आज घर-घर में मौजूद है। समाचार हो या कोई अन्य चीजें दूरदर्शन के जरिए इन्हें बड़ी आसानी से लोगों तक पहुँचाया जा सकता है। अपवाद को छोड़कर गाँवों से लेकर शहरों तक हरेक घर में हर वक्त टीवी का उपयोग धड़ल्ले होता है। अपनी बात लोगों तक पहुँचाने का इससे सुविधयुक्त और महत्वपूर्ण माध्यम और कोई दूसरा नहीं है। इसी चीज को समझकर देश के कुछ टीवी चैनलों ने आजकल अनेक अनर्गल धारावाहिकों का सिलसिला आरंभ कर दिया है। टीवी से न केवल परिवार के एक व्यक्ति तक पहुँचा जा सकता है, बल्कि पूरे परिवार को इससे प्रभावित किया जा सकता है, क्योंकि अधिकांश परिवारों में सभी लोग टीवी देखते ही हैं। जो अधिक व्यस्त होते हैं, वे भी फुर्सत के क्षणों में दूरदर्शन का थोड़ा बहुत उपयोग तो करते ही है। और चूँकि इसके लिए घर के सदस्यों को कोई अतिरिक्त परेशानी उठानी तो पड़ती नहीं है।  बस एक बटन दबाया और टीवी चालू है। शायद इसी मानसिकता को समझकर देश के कुछ तथाकथित नाटककार, साहित्यकार, बुद्धिजीवी एवं आयोजकों ने इसका गलत इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। आजकल टीवी पर ऐसे अनेक नाटकों और धारावाहिकों की बाढ़ आ गई है, जो लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं। ऐसा लगता है, जैसे पारिवारिक व घरेलू नाटक के नाम पर इस आधुनिक युग में लोगों को आदिम युग की ओर एक प्रकार से धकेलने का कुछ चैनलों ने बीड़ा उठा लिया हो। इन दिनों कलर्स चैनल, जी टीवी, स्टार प्लस, स्टार वन आदि कुछ चैनलों में तो जैसे विपरीत और नकारात्मक धारावाहिकों की एक होड़ सी लग गई है। कलर्स पर ‘बालिका वधु’ इसकी तरह ‘बैरी पिया’, ‘ना आना इस देश लाडोे’, ‘भाग्यविधाता’, ‘उतरन’ आदि इन चैनलों के कुछ एसे उत्पाद हैं, जो वर्तमान विकसित समाज के लोगों की मानसिकता को विपरीत दिशा में मोड़ने का काम कर रहे हैं।
‘बालिका वधु’ में एक छोटी सी मासूम बच्ची का विवाह दिखाकर जहाँ अप्रत्यक्ष रूप से बाल विवाह का समर्थन किया गया है, वहीं इसमें बूढ़ी अनपढ़ और गँवार वृद्धा की क्रूरतापूर्ण कार्रवाई को दर्शया जा रहा है। ‘बालिका वधु’ धारावाहिक में यह बूढ़ी औरत अपने पोते (जगिया) को प्यार करती है, वहीं छोटी सी बच्ची (पौत्र वधु) ‘आनन्दी’ पर जुल्म होती है। यहाँ तक कि उसे पढ़ने से भी रोकती है और बच्ची को डराकर उसकी सारी कापी किताबें उसी से जलवा देती है। क्या ऐसी हड़कतें सरकार द्वारा चालाए जा रहे कन्या शिक्षा के अभिायान पर सीधे तौर पर चैट नहीं करतीं हैं? एक गँवार अनपढ़ बुढ़िया (दादी माँ) के आगे पूरा परिवार, संबंधी सब नतमस्तक एवं लाचार दिखाई देते हैं। इसी प्रकार एक दूसरे धारावाहिक ‘बैरी पिया’ में गाँव के एक दबंग ठाकुर के द्वारा गरीबों पर अत्याचार दिखाया जा रहा है। इसी धारावाहिक में ठाकुर गरीबों की जमीन छुड़ाने के लिए उनकी बेटियों को उसके पास गिरवी रखने की शर्त रखता है।
इस प्रकार धारावाहिक ‘उतरन’ में नौकरानी (औरत) पर जुल्म दिखाया गया है। नौकरानी की बेटी ‘इच्छा’ के मनपसंद वर ‘वीर’ को जबरन उससे छुड़वाकर ठाकुर की लड़की ‘तपस्या’ की शादी वीर से कर दी जाती है और नौकरानी एवं उसकी बेटी के अधिकार को छीनकर उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है।
कलर्स चैनल के ‘बालिका वधु’ ने ऐसे नकारात्कम धारावाहिक की शुरूआत की और फिर तो क्रमवार ऐसे धारावाहिकों में जैसे औरतों की मजबूरी, दुर्दशा एवं उन पर अत्याचार दिखाने की जैसे एक प्रतिस्पर्धा चल गयी है।
ऐसे ही एक धारावाहिक ‘ना आना इस देश लाडो’ में गाँव की एक दबंग महिला ‘अम्माजी’ के चरित्र ने तो हद कर दिया है। ये अम्माजी कदम कदम पर स्त्रियों पर अत्याचार ढाती हैं। सभी औरतों पर जुल्म करती है। किसी का प्रेम विवाह नहीं होने देती और हद तो तब हो जाती है, जब नवजात बालिकाओं को घड़ा में दूध में डालकर मार डालती है। फिर भी सारे लोग यहाँ तक कि पुरुष भी इस ‘अम्माजी’ के आगे सर झुकाए खड़े रहते हैं। किसी में भी उसका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। क्या आज के वर्तमान विकसित समाज में ऐसा संभव है? ऐसी कहानियों को राष्ट्रीय चैनल पर दिखाकर आखिर ये तथाकथित बुद्धिजीवी क्या साबित करना चाहते हैं। अगर यह मान भी लिया जाय कि कहीं किसी सुदूर अविकसित गाँव में सीमित स्तर पर थोड़े बहुत ऐसे किस्से होते भी होंगे तो भी क्या इसे राष्ट्रीय चैनल पर इतने व्यापक रूप में दिखाने की कोशिश सही है? क्या इन धारावाहिकों में आदि युग में घटित घटनाओं को दिखाकर जिन चीजों को लोग भूल चुके हैं फिर से उन्हीं बर्बर मानसिक प्रवृत्तियों को दोबारा स्थापित करने की कोशिश नहीं की जा रही है?
कलर्स, जी, स्टार प्लस, स्टार वन आदि चैनलों ने बालिका वधु, बैरी पिया, ना आना इस देश में लाडो, भाग्यविधाता, उतरन जैसे धारावाहिकों में ऐसी चीजें धड़ल्ले से परोस रहे हैं, जिनमें स्त्रियों, बालिकाओं का अपमान दिखाया जाता है, केवल स्त्री ही नहीं, गरीबों को भी अपमान दिखाया जाता है।
इनमें हास्यास्पद बात ये भी है कि एक ओर तो महिलाओं, गरीबों का शोषण एंव पिछड़ापन होता है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक रहन सहन को भी दर्शाया जाता है। जैसे ‘अम्माजी’ को बेटा अमेरिका से पढ़कर आ रहा है, अल्ट्रासाउण्ड मशीन बैठा रहा है। अम्माजी इंटरनेट का भी उपयोग कर रही है और दूसरी ओर एकदम घटिया मानसिकता से ग्रस्त हैं। इस तरह के द्वार्थक (डबल पाॅलिसी) का क्या संबंध है। ऐसी कहानियों में एक बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि प्रायः इनमें सरकारी व्यवस्था और सरकारी तंत्र को करीब -करीब बाहुबलियों व अत्याचारियों के आगे पंगु दिखा दिया जाता है। ‘न आना इस देश लाडो’ की ‘अम्माजी’ (डीएम) जिलाधीश को भाव नहीं देती है। वहीं लोगों के कल्याण हेतु आवंटित सरकारी पैसे को भी वह हड़प कर जाती है।
एक ओर धारावाहिक ‘भाग्यविधाता’ में दबंग लोगों के द्वारा लड़कों को उठवाकर (अगवा कर) उनकी शादी कर दी जाती है और फिर जब लड़की ससुराल जाती है, तो लड़की (बहु) को उसके ससुराल वाले सताते हैं कि तुम्हारे बाप ने तो लड़के को उठवा कर शादी करवाया है। और वधु को तरह-तरह से मानसिक पीड़ा देते हैं। क्या इन धारावाहिकों  के निर्माताओं का उद्येश्य सिर्फ और औरतों को अबला बताकर उनपर अत्याचार दिखाना ही मात्र रह गया है। महिलाओं के व्यक्तित्व को दबाना, उन्हें निरूत्साहित करना एक सभ्य समाज में कितना उचित है? अधिकांश कथाओं में नारी का चित्रण या तो भोग एवं विलासिता की एक वस्तु के रूप में किया जाता है या फिर उसे एक दबी सहमी शोषिता, पीड़िता,  दुर्बल एवं अबला के रूप में पेश किया जाता है। क्या समाज के तथाकथित बुद्धिजीवी नारी के इसी दो रूप को जानते हैं और क्या महिलाओं बालिकाओं के इन्हीं रूपों की मान्यता समाज मंे स्थापित है। दुनिया की आधी आबादी को अपमानित करने का अधिकार आखिर इन्हें किसने प्रदान कर दिया? क्या इन धारावाहिकों के निर्माता, निर्देशकों को संघर्षशील, उत्साहित, सफल एवं वीर महिलाओं के जीवन से प्रेरित कथाओं को दिखाने में शर्म आती है? क्या धारावाहिकों का निर्माण करते समय इन्हें मदर टेरेसा, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, महाश्वेता देवी, बचेन्दी पाल, इंदिरा नुई, नंदिता दास, मेधा पाटकर, किरण बेदी, शबाना आजमी, आन सान सू की आदि कर्मठ, सफल एवं योग्य महिलाओं की याद नहीं आती। कहने का अर्थ यह नहीं है कि ऐसे पात्रों पर धारावाहिक बनते ही नहीं। बनते हैं, पर यदा-कदा ही इनका निर्माण होता है। अधिकतर कथाओं में नारियों को निरूत्साहित, तिरस्कृत एवं प्रताड़ित करने की ही पवृति को बढ़ावा दिया जाता है।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि ये तो नाटक है, इनमें लोग अपना रोल अदाकर कला का प्रदर्शन कर रहे हैं और इन कलाकारों के निजी जीवन में इनका अलग आचरण व्यवहार होता है। पर सोचने वाली बात है कि क्या हर दर्शक मानसिक रूप से इतने परिपक्व होते हैं कि वे इनके इन व्यवहारों को सामान्य रूप में लेंगे। धरावाहिक के प्रारंभ में सिर्फ चार लाईन लिख (यह धारावाहिक काल्पनिक है किसी व्यक्ति अथवा घटना से इनका मेल संयोग मात्र है....और वे पंक्तियाँ भी हर धारावाहिक में नहीं लिखी गयी होती हैं)  देना ही पर्याप्त नहीं होता। उन पंक्तियों को तो अनेक दर्शक पढ़ते भी नहीं। वैसे भी सभी दर्शक साक्षर नहीं होते। और चूँकि इन्हें देखनेवाले सभी वर्ग एवं आयु के होते हैं। इस लिए इनका एक नकारात्मक प्रभाव समाज पर पड़ता ही है। वैसे भी समाज में अधिकांश लोग चीजों को नकारात्मक रूप में लेने की प्रवृति से अधिक प्रभावित एवं ग्रसित होते हैं। इन्हें देखकर कुछ अन्य लोग भी बालिकाओं, स्त्रियों एवं गरीबों को अपमानित करने की नकल कर सकते हैं। बहरहाल जो भी हो इस तरह के बकवास! नाटकों से समाज के बीच कुछ गलत संदेश तो जाते ही जाते हैं।
ऐसे धारावाहिकों से एक नहीं बल्कि एक साथ अनके हानियाँ हो रही हैं। जैसे ये दर्शकों की मानसिक अवस्था को विकृत कर रहे हैं। अनेक रूढ़िवादी कुप्रथाओं जैसे बालबिवाह, अशिक्षा, बालिकाओं का वध, अमीर-गरीब के बीच खाई, महिलाओं का अपमान एवं उनका शोषण आदि को बढ़ावा दे रहे हैं। सरकारी तंत्र और व्यवस्था को पंगु व लाचार दिखाकर उनका अपमान कर रहे हैं। सेंसर बोर्ड की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं। अतः इनके प्रसारण पर रोक लगनी ही चाहिए।
पर पता नहीं ऐसे धारावाहिकों को पास करते समय सेंसर बोर्ड के बुद्धिजीवी क्या करते हैं। क्यों वे ऐसे निम्न और समाजविनाश! धारावाहिकों को अनुमति प्रदान कर रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि परदे के पीछे वहाँ भी धन और बल का ही खेल चल रहा है?
 सरकार को चाहिए कि इस विषय पर यथोचित ध्यान दे और ऐसे बकवास धारावाहिकों पर लगाम लगाकर औरतों और समाज के विकास संबंधी धारावाहिकों के निर्माताओं को प्रोत्साहित करें।
के. ई. सैम

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