शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

गणतंत्र कोई मंत्र नहीं है

हम भारत के लोग इस 26 जनवरी को 61 वाँ गणतंत्र मना रहे हैं। आखिर ये तंत्र क्या है?
शायद ये तंत्र एक दियासलाई की तरह है। इस तंत्र के हाथों में ‘गण’ की सारी जिम्मेदारी होती है। तंत्र इसको निभाए कैसे? सब कुछ तंत्र के संचालक की नैतिकता पर है कि वह गण के घर को रौशन करे या फिर घर को जला दे। एक अहम् सच्चाई यह कि इस तंत्र को गण ही संचालित करता है। और इसे संचालित करने वाले गण का चरित्र और चाल कैसा है, यह देखना जरूरी है, जो हमारे समस्त गण की खुशहाली का नींव होता है।
सर्वविदित है कि हमारा संविधान देश के ‘गण’ की आत्मा और उसकी जरूरतों के अनुरूप न होकर इधर-उधर से इकट्ठा की गयी वाक्यों से मिलकर बनायी गयी किताब है। चाहे जो हो, लेकिन वह बहुत कमजोर भी नहीं है। कमजोर है वह ‘गण’ का चरित्र जो इस तंत्र को चला रहा है। सही दिशा में चले, इसके लिए नैतिकता का मंत्र जरूरी है। वह नैतिकता का मंत्र है कहाँ?
इस तंत्र को समझने के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदीजी द्वारा पंडित नेहरू को लिखे पत्र का एक अंश ही काफी है-
‘‘मशीन की सभ्यता की विजयी होने के बाद स्थिति अधिक दयनीय हो गयी है। शासन तंत्र भी एक अदृश्य किन्तु भीमकाय मशीन बनता जा रहा है। उसका शिकंजा दिन-प्रतिदिन कठोर से कठोरतर होता जा रहा है। साहित्यकार ही क्यों, मनुष्यता ही त्राहि-त्राहि कर रही है। शासन यंत्र और भी मजबूत मशीन बनते जा हा है। बडे़-बड़े कानूनदाँ यह कहने में गर्व अनुभव करते हैं कि कानून की व्यवस्था अंधी होती है। अभी यह तो नहीं कहा जा रहा है कि वह निष्प्राण भी होती है, पर अंधी लाक्षणिक शब्द है और उसका अर्थ हृदयहीन तो अवश्य है....।’’
यही हृदयहीन तंत्र के कारण आज करोड़ों गरीब, गरीबी रेखा के नीचे के लोग, अंतिम पायदान पर बैठे लोग अपने अस्तित्व की लाड़ाई लड़ रहे हैं।
यह सच है कि गणतंत्र कोई मंत्र नहीं है कि सौ पचास बार पाठ कर लेने से संकट का निवारण हो जाये। इसके लिए जरूरत होती है नैतिकता रूपी तप की साधना।
तो आइए हम भी आपको हृदय से इस लोक पर्व की शुभकामनाएं अर्पित करें।
अरूण कुमार
प्रधान संपादक     

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें