सोमवार, 26 अक्तूबर 2009


बापू और राजनीति




-डॉगिरिधारी राम गौंझू ‘‘गिरिराज’’

महामना विश्व वन्दय महात्मा गांधी का जीवन ही विश्व मानव के लिए एक महान संदेश है। बापू ने जीवन भर सत्य का अन्वेषण किया तथा तत्कालीन समय में जो सत्य प्रतीत हुआ उसी का पालन अपने जीवन में प्रयोग किया। उसमें उन्हें अपार सफलता मिली। सत्य के पुजारी होने के कारण उनका आत्मबल उन्हें कभी गिरने नहीं दिया। गांधी जी ने कभी यह दावा नहीं किया कि उनके जीवन का सत्य अंतिम है। वस्तुतः कोई भी कार्य स्थान समय और व्यक्ति पर निर्भर करता है। परम सत्य में असीम शक्ति होती है। तभी तो कभी भी गांधी जी किसी मानवीय शक्ति से भयभीत न हुए। जिसके राज्य मंे सूर्यास्त न होता था,उसका सम्राट एंव उसके पदाधिकारी  तक यह कहने को विवश हुए कि गांधी न तुम्हारी तरह कोई हुआ है न हाकगा। गोलमेज काॅन्फ्रेंस से गांधी जी को उनकी वेश-भूषा में उपस्थित के लिए प्रतिबंध लगाया गया था। इसके प्रत्युत्तर में गांधी जी कहा था, ‘‘मैं जिनका प्रतिनिधि बनकर जा रहा हूँवे मुझे देखकर उनका अंदाजा स्वयं लगा लेंगे।’’गोलमेज काॅन्फ्रेंस मंे गांधी के सम्मान में खड़ा न होने की चेतावनी तब व्यर्थ हो गईजब गांधी जी के काॅन्फ्रेंस में प्रवेश करते ही जार्जा पंचम सबसे पहले खड़े हो गए। तब फिर कौन बैठा रह सकता था। यह भी सत्य की विजय थी।



जार्ज पंचम ने गांधी जी के इतने कम वस्त्र पहनने का कारण पूछा तब महात्मा जी ने जार्ज पंचम के दीर्घ उत्तरीय वस्त्र की विशालता की ओर संकेत करते हुए कहा था, ‘‘आप से बचे तब न।’’ अर्थात् एक आदमी (राजा) के लिए इतना बड़ा वस्त्र धारण करने का औचित्य क्या हैयह आडम्बर किस लिएगांधी जी ने भारत दर्शन यात्रा में अनुभव किया था एवं प्रत्यक्ष देखा था।
लाख भारतीय गाँव में बहुसंख्यक के पास पूरी तरह तन ढकने को वस्त्र नहीं। स्त्रियों की लज्जा तक ढंक नहीं पाती,उतने कम वस्त्र देख कर ही 36 हाथ की काठियावाड़ी पगरी सदा के लिए बापू ने त्याग दिया। अर्थात् काम भर कपड़े पर्याप्त हैं। उसी तरह उपयोगी वस्तुओं की अधिकता को वे एक तरह से चोरी मानते थे। आवश्यकता से अधिक धन-संपत्ति व साधन विलासिता की पहचान है। और विलासिता पूर्ण जीवन गांधीजी की दृष्टि में गरीबों का हक मारना है। गांधी जी कर दृष्टि में समाज व्यवस्था में सब बराबर के सदस्य हैं। सभी को उनकी मेहनत एंव आवश्यकता के अनुसार सुविधा मिलनी चाहिए। शक्तिशाली जन कमजोरों का एवं धनी गरीबों ध्यान रखेंगे। हरेक व्यक्ति सबके कल्याण के लिए सचेत रहेगा। तभी दक्षिण अफ्रिका के फिनिक्स आश्रम में शौचालय साफ करने जाने पर गांधी ने कस्तुरबा गांधी को धक्के मार कर निकट जाने को कहा था। जब दूसरे लोग हमारी गंदगी सफाई कर सकते हैंतो दूसरे की हम क्यों नहीं कर सकतेहर आदमी का काम समाज के लिए तथा जीवन के लिए उपयोगी है। सफाई कर्मचारी जिनका आवश्यक हैउनका श्रेष्ठ पदों पर बैठा व्यक्ति नहीं। क्योंकि सफाई कर्मचारी के काम न करने से दुनिया ही समाप्त हो जायेगीगंदगी फैलने वाली महामारी से। अतः गांधी जी कहा करते थे, ‘अपने परिवेश की सफाई और सुरक्षा का ध्यान हम स्वयं करें तो उसके लिए अलग से सफाई कर्मचारी रखने की आवश्यकता ही न हो।’’ गांधी जी स्वावलम्बी जीवन की प्रतिमूर्ति थे। और वे इसी रूप में लोगों को देखना चाहते थे। गांधी जी सादगी पसंद राजनेता थे। उन्होंने नागपुर के वर्धा में सेवाग्राम में जिस आश्रम का निर्माण किया थावह एक सौ रुमें स्थानीय उपलब्ध सामग्रियों से मिट्टीबांसलकड़ीखपडे़ के घर बने हैं। जैसा भारत में किसी गरीब का घर होता है। उस मिट्टी के घर में घरेलु उपयोग की वस्तुएँ भी सामान्य थीं। बैठने के लिए चटाईसोने के लिए मामलू चैकी। सामान रखने के लिए बांस की बनी तखती पर्याप्त थे। यह था उनका आडम्बरहीन जीवन। सादा जीवन उच्च विचार के वे सदा हिमायती थे। देश के स्वतंत्रता सेनानियों से गांधी जी ने अपेक्षा की थी कि वे आजाद हिन्द के किसी लाभ के पद पर नहीं रहेंगे। वे राष्ट्र के संरक्षक एवं मार्ग दर्शक की भूमिका में रहेंगे। क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के नेता यदि राष्ट्र सेवा के पदों में आ गए तो वे विलासिता में डूब जाएंगे। अतः सत्ता वैसे समाज सेवियों के हाथों दिया जाएजिसमें लाभ-लोभ,लालच की प्रवृत्ति न हो। इतना ही नहीं अंग्रेजों व शासकों के आलीशान शाही शान शौकत व विलासिता वाले महल व मकान सार्वजनिक उपयोग के लिए जैसे शिक्षाचिकित्सा न्याय आदि का मंदिर बने। और नेता मंत्री पदाधिकारी सामान्य सुविधा वाले मकानों में रहे। परन्तु गांधी जी के इन महत्वपूर्ण एवं व्यावहारिक विचारों को पूर्णतः उपेक्षित कर दिया गया। बापू को जिसका डर थावही हुआ और भयंकर रूप से विलासिता की सीमा को पुराने राजेमहराजाओं को पीछे छोड़ दे रहे हैं। देश के सेवक मालिक बन बैठे। गांधी जी ने स्वतंत्र भारत के लिए दो किताबें लिखी हैं एक है- हिन्द स्वराजदूसरा- मेरे सपनों का भारत। इसके अतिरिक्त सर्वोदय में भी लिखा है कि भारतीय परिवेश में भारतीय संस्कृति के अनुकूल मानवीय धरातल पर देश में निम्नतम व्यक्ति थेजो हित को सामने रखकर किसी भी लोकहित व राष्ट्रहित की योजना बने और उसे पूरा किया जाए। अंग्रेजी शासन पद्धति भारतियों के लिए किसी भी स्थिति में समुचित नहीं थीइसी से बापू ने कहा था, ‘‘सारे अंग्रेज भले ही मेरे देश में रह जाएलकिन मैं अंग्रेजियत का भारत में रहना कतई नहीं बर्दाश्त कर सकता।’’ लेकिन आज गांधी जी के इस महान संदेश को नकारने की विडंबना से पूरी तरहग्रस्त हैं। महात्मा जी ने भारतीय जीवन पद्धति को अपनाते हुए लाख गाँव में ग्राम पंचायत को पुनर्जीवित करना चाहते थे। ये पंचायत ही अपनी आवश्यकताओं का निर्धारण करते। हर ग्राम स्वावलम्बी बने वे यही चाहते थे। उसी तरह शासन की हर बड़ी इकाई पंचायत ही रहे। प्रान्तीय पंचायतराष्ट्रीय पंचायत जैसी न कि आज की तरह जतरू की जगह जाॅन्सन को सत्ता पर बिठा देना। शासन नहीं अंग्रेजों की जो उपनिवेश को कब्जे में रखने के लिए बनाए गए थे। शिक्षा के विषय में गांधी जी स्पष्ट किया था कि बच्चों की शिक्षा उनकी मातृभाषा मंे मिले। राष्ट्र भाषा हर भारतीय के लिए जरूरी हो। परन्तु विदेशी या अंग्रेजी जो पढ़ना चाहते हैं वे ही पढ़ें। और उन विदेशी भाषा साहित्य ज्ञान-विज्ञान में जो भी नया व अच्छा ज्ञान आ रहा हो उसका भारतीय भाषाओं तथा राष्ट्र भाषा में अनुवाद हो। विदेशी भाषा से किसी भी देश का विकास नहीं हो सकता। यह सर्वविदित है। ऋग्वेद में स्पष्ट लिखा है, ‘‘अहम राष्ट्री संगमतीबसूनाम।’’ अर्थात् राष्ट्र की अपनी भाषा ही उसे ऐश्वर्यों की प्राप्ति कराती है। तभी गांधी जी ने15 अगस्त 1947 को एक विदेशी पत्रकार को विश्व को संदेश देते हुए कहा था, ‘‘दुनिया से कह दो कि आज से गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’’ यही कारण है कि अफ्रिका में अपने बच्चों को एवं नाती-पोतों को भी अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया न भेजाजब कि वे इसके लिए गांधी जी को अपना क्षोभ व्यक्त कर चुके थे। गांधी जी ने जो कहा वह कर दिखाया। इसके औचित्य स्पष्ट करने पर उनके बच्चों का विरोध भी समाप्त हो गया। गांधी जी का जीवन और कर्म ही उनका उपदेश है। संदेश है। और प्रेरणा है। इनके सर्वोदय का रास्ता आधुनिक विकास था। चकाचैंध दिखा नहीं सकता। इसमें अमीरी और गरीबी विपरीत ध्रुव की तरह नहीं होता। परन्तु समाज में राष्ट्र में सामाजिक समरासता बनी रहती है।लोग राष्ट्र को समाज को व्यक्ति से ऊपर मानतेजानते और उसके लिए प्राण देकर भी आचरण करते हैं। आज का विकास मानव जीवन के लिए कितना विषाक्त होता जा रहा है,मानवीय मूल्य शून्य की ओर अग्रसर है। यदि यही हाल रहा तो विश्व और विकास के नमूने तो रह जाएंगे उसके निर्माता और उपभोगता नहीं रहेंगे। विकास मानव हित में होना चाहिए न कि विकास के लिए मनुष्य का उपयोग। जिस दिन ऐसा होगा उस दिन लोग गांधी के सर्वोदय को स्मरण करेंगे। पछताएंगे। जैसे आज भी विश्व मानव के सत्यमशिवम,सुन्दरम के लिए गांधीजी के मार्ग को मनवचन और कर्म से स्वीकार कर रहे हैं। यही गांधी मार्ग ही मानव और विकास में संतुलन रख सकता है।

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