गांधी, नक्सलवाद और सलवा जुड़ूम
-पंकज कुमार झा
आदिवासी अंचलों में कैंसर का रूप लिए हुए नक्सलवाद के सम्बन्ध में गांधी की प्रासंगिकता को खंगालते हुए सहसा तीसरी दुनिया के प्रखर चिंतक ‘‘पॉलो फ्रेरे’’ स्मरण हो आते हैं। फ्रेरे के अनुसार, ‘‘शोषक और शोषित दोनों का अमानुषीकरण मानवीय विडंबना है। इस दो तरफा अमानवीकरण से इंसानी नियति को बचाने की क्षमता एवं जिम्मेदारी शोषक के पास न होकर शोषित की है।’’छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे उन आदिवासी अंचलों की, जिसेपहले तो शासकों ने शोषक बनकर अंचल को हर तरह की मानवीय सुविधाओं से दूर रखा और उसके बाद उस शोषण से मुक्ति का सपना दिखाने कुछ लोग बंगाल से आये और बेचने लगे आदिमजनों के सपनो को। दशकों तक शोषण के विरोध के नाम पर एक नए एवं भयानक तरह के दुकान चलाने वालों से भोले-भले लोगों का पाला पड़ा। और काफी समय तक उत्पीड़न को अपनी नियति मान झेलते रहे वो सबकुछ। लेकिन कभी ना कभी इन नक्सलियों के पाप का घड़ा भी फूटना ही था। दशकों बाद उत्पीड़ित की भूमिका में रहे आदिवासी जनों ने बस्तर में अपनी आंखें खोली। उन सपनों के सौदागरों के रक्तिम चंगुल से छूट सकने की खुद की क्षमता को पहचाना।
अमानवीकरण से अपनी नियति को बचाने की जिम्मेदारियों को समझा और तब एक ऐतिहासिक आंदोलन शुरू हुआ, जिसका नाम पड़ा सलवा जुडूम। शांति के लिए एकत्रीकरण नामक इस आन्दोलन ने एक बारगी तो नक्सालियों की चूले ही हिला दी। लगा अब इन दुकानदारों के दिन गिने-चुने हैं। लेकिन तबतक सफेदपोश बुद्धिजिवियों ने नक्सलियों की सुरक्षा का अपना पैतृक जिम्मा सम्हाला और गांधीवाद तथा अहिंसा के नाम पर ही इन हिंसक जानवरों का बचाव करने लगे। कुछ इस तरह की सपने हमारे बेच रहे थे कुछेक लोग, हमने जो आँख खोली तो आकर डपट गए। कुछ मानवाधिकारिओं ने तो गांधी का उपहास करते हुए उन्हें सलवा जुडूम का ब्रांड एम्बेसडर ही घोषित कर दिया। खैर! नक्सलियों के खिलाफ अपनी तरह का विशिष्ट एवं अनोखा यह आन्दोलन सलवा जुडूम ना कोई ब्रांड हैं, और न ही गांधी को ‘‘ब्रांड एम्बेसडर’’ जैसी शब्दों से दूषित करने की जरूरत। ब्रांड शब्द बिल्कुल बाजार की उपज हैं और बाजार जैसी चीजों से ना कभी आदिवासियों का सम्बन्ध रहा और ना ही गांधी को उसकी जरूरत। हाँ लेकिन यह तय है कि जहां भी अव्यवस्थाओं के खिलाफ असहयोग की शुरुआत होगी, जहां भी अपनी भूमि को उत्पीड़कों के चंगुल से मुक्ति हेतु कोई प्रयास शुरू होगा, तो उसके शाश्वत प्रतीक होंगे महात्मा गांधी। लड़ाई चाहे अफ्रिकी‘‘नस्लवाद’’ के खिलाफ हो या बस्तरिया ‘‘नक्सलवाद’’के। हर बार अपनी लाठी लेकर 140 वर्ष का वह महामानव बिल्कुल सीना ठोककर खड़ा होगा राक्षसों के समक्ष, प्रतीकों के रूप में, जायेगी, लेकिन उसकी वही तेजस्विता, वही आध्यात्मिक आभा, वही आत्मिक बल और अन्याय के विरूद्ध खड़े होने की वही जिजीविषा दिखेगा आज और हजार साल के बाद भी। यदि गांधी की प्रेरणादायी ताकत नहीं हो,तो एक बारगी तो आत्मा कांप जाती है। रोंगटे खड़े हो जाते हैं यह सोचकर कि हमारा पाला कितने खतरनाक लोगों से पड़ा है। अस्तित्व की कितनी विकट लड़ाई लड़ रहे हैं ये आदिम जन। क्या नहीं है नक्सलियों के पास? ढेर सारा देशी-विदेशी पैसा, अत्याधुनिक हथियार, सैकड़ों लोगों को क्षणभर में मांस के लोथड़े में तब्दील कर देने वाले भूमिगत बम, मिसगाइडेड मिसाइल की तरह ढेरों प्रतिभाशाली एवं उर्जावान लोग, वेतनभोगी मीडिया कर्मी, चीन के चेयरमैन की शागिर्दी, भारत की सरकार के बैसाखी बने लोगों का सहयोग, अमानधिकारियों का संरक्षण और जंगली लड़ाई के जानकार उसकी खुंखार गुरिल्ला सेना। एक ‘‘सत्य’’ और‘‘इमानदारी’’ के सिवाय सबकुछ तो है नक्सलियों के पास। और यही पर गांधी प्रतीक बन जाते हैं इन बस्तरिया वीरों के। इसी कारण मोहनदास राजदूत बन जाते हैं सलवा जुडूम के। आखिर उस युवा बैरिस्टर के पास भी सत्य की ताकत के अलावा था क्या? लेकिन दक्षिण आफ्रिका में उसी ताकत के बदौलत गांधी ने ट्रेन के बाहर फेकने वाले फिरंगियों को उसके समूचे साम्राज्य, उसके सारे उपनिवेश के बाहर फेककर ही दम लिया था। जहां तक सवाल गांधी के अहिंसा की है, तो आज यदि गांधी होते तो शायद फिर अपनी इसी बात को दोहराते कि ‘‘हिंसा और कायरता’’ में से अगर हमें एक चुनना पड़े तो हम हिंसा चुनना पसंद करेंगे, आखिर वह सत्य का पुजारी इस असत्य को कभी नहीं दुहराता कि उसे आजादी बिना खडग बिन ढाल, मिल गयी थी। निश्चय ही वह नमन करते उन कांतिकारियों का भी जिन्होंने वनवासियों की तरह ही पशुता पर उतर गये अंग्रेजों की चूले हिलाकर रख दी थी। एक जगह तो नेहरू ने भी गांधी जी की अहिंसा को अपनी आत्मकथा में एक रणनीतिकार ने कहा है, ‘‘जब काफी हिंसा के कारण जब महात्मा ने अपने आंदोलन को विराम दिया था। एक दोहा है ‘‘गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़िकोढ़ खोट, भीतर हाथ सहार दे, बाहर मारे चोट’’ यानि गुरु को कुम्हार की तरह होनी चाहिए जो भीतर से तो सहारा दे मगर बाहर चोट भी मारने की कुबत रखे। शायद किसी के पाप का घड़ा फोडने में भी इसी नीति की जरूरत होती है। गांधी जी ने कभी यह दावा नहीं किया कि उन्होंने कोई नया विचार देश को दिया है। 28 मार्च 1936के हरिजन के अंक में उन्होंने लिखा था, ‘‘नये सिद्धांतों को जन्म देने का दावा में नहीं करता, मैंने तो केवल अपने ढंग पर सनातन सत्यों को जीवन और समस्याओं पर लागू करने का प्रयास किया है।’’ यानि अपने समग्र जीवन में गांधी अपने उसी सनातन सत्य के साथ प्रयोग करते रहे जो पूर्ववर्ती विचारको ने उन्हें दिया था। अन्य कई चीजों के अलावा अहिंसा भी उनमें से एक था, लेकिन वे कोई लकीर के फकीर नहीं थे। समयानुकूल विचारों में लचीलापन लाना भी उनके सिद्धांतों में शामिल था। ऐंजिल की पुस्तक के आधार पर उन्होंने कहा था कि कोई एक गाल पर थापड़ मारे तो दूसरा गाल उसके आगे कर दो। लेकिन जब दूसरे पर भी थप्पड़ मार दे तो तीसरा गाल कहां से लायेंगे आप? उस समय भले ही तीसरे गाल का प्रयोग करने की जरूरत नहीं पड़ी हो, कुछ तो तात्कालीन वैश्विक परिस्थितियाँ, गांधी का तेज और क्रांतिकारियों का बलिदान कि अंग्रेजों को वापसी के लिए मजबूर होना पड़ा। लेकिन आज तो ये नक्सली हमसे हमारा तीसरा गाल भी मांग रहे हैं। राम राज्य की स्थापना को ही अपना ध्येय मानने वाले गांधी के रामकथा में ही इस तीसरे गाल की गुत्थी सुलझी नजर आती है। जब तीन दिन तक विनय करने के बाद भी राह नहीं देने पर राम समुद्र को सोखने को यह कहते हुए उद्यत हुए थे कि ‘भय बिनु होई ना प्रीति’ कभी आपने पढ़ा है कि गांधी ने कभी आलोचना की हो भगवान राम के इस कदम की। जब उसी दण्डकारण्य (बस्तर) में राक्षसों द्वारा संहार किये गये वनवासियों के हड्डियों का पर्वत देख भगवान राम, राक्षसों के खात्मे का संकल्प लेते हैं, क्या आपने कहीं सुना कि अपने किसी आलेख या भाषण में गांधी जी ने उस प्रसंग की आलोचना की हो? राक्षसों के संहार की कथा ‘‘रामायण’’ पढ़ते-पढ़ते ही तो बकौल गांधी, गांधी जी सत्य हो गये थे। इस रावण को समाप्त करने वाले भगवान राम ही तो अंत समय में भी उनके जिह्वा पर विराजमान रहे। गीता पर सर्वश्रेष्ठ टीका लिखने वाले, और उसमें वर्णित उपदेशों को अपने जीवन में अंगीकार करने वाले उस कर्मयोगी को कभी आपने ये कहते पढ़ा कि अर्जुन को युद्ध के लिए ‘उकसाने’ वाले कृष्ण गलत थे। गांधी के प्रयोगों पर किसी तरह के विवेचना की पात्रता न रखते हुए भी विद्वतजनों से यह आग्रह करना उचित होगा कि वे सभी गांधी को उनके आस्था, विश्वास एवं कर्म के साथसमग्रता में समझने की कोशिश करें। बिना किसी पुर्वाग्रह के गांधीवाद पर विमर्श करते समय लंका और कुरुक्षेत्र के नायकों के प्रति गांधी की असीम आस्था पर भी विचार करना होगा।गांधी के बारे में कोई भी प्रशंसा या आलोचना तो निश्चय ही सूर्य पर थुकने या उसे दीया दिखाने के सदृश होगा।
-लेखक समाचार पत्रिका ‘‘दीप कमल’’ के सम्पादक हैं.
अभी तक ये ‘‘जयराम दास’’ नाम से पत्रा-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं
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