रविवार, 25 अक्तूबर 2009

व्‍यंग्‍य कहानी




आदिवासी-पंडित

-गिरिश पंकज

विक्रमार्क फिर भागा वेताल के पीछे और उसे कंधे पर लाद कर आगे चलने लगा। बेताल ठहाके लगा रहा था और विक्रमार्क हमेशा की तरह भाव-शून्य चेहरे के साथ बढ़ा जा रहा था। विक्रमार्क की ओर से कोई प्रतिक्रिया न देख कर वेताल बोला-’’राजन, तुम कई बार मुझे उस नेता की तरह लगते हो, जो बार-बार चुनाव हारता है, लेकिन हर बार इसी भरोसे में चुनाव लड़ता है कि इस बार वह जरूर जीतेगा। और वह जीतता भी है। मैं तुम्हारी सहन-शक्ति को प्रणाम करते हुए इस बार एक नेता की कहानी सुनाता हूँ। उम्मीद है कि तुम्हारा मनोरंजन होगा और थकान का अहसास भी नहीं होगा।’’ विक्रमार्क चुपचाप चला जा रहा था।

जैसे वेताल की बात सुन ही न रहा हो। वेताल मुस्कुराते हुए शुरू हो गया, ‘‘हे राजन, किसी प्रदेश में एक पंडितजी रहा करते थे। वे बड़े लोकप्रिय व्यक्ति थे। उनके पिता भी पंडिताई किया करते थे। पिता के निधन के बाद युवा पंडित भी पूजा-पाठ के सहारे जीवन-यापन करने लगा। पंडित वैसे तो एक श्लोक भी शुद्ध नहीं बोल पाते थे, लेकिन उन्हें टोकने वाला कोई न था। संस्कृत किसी को समझ मंे भी नहीं आती थी। अधिकांश लोग अपनी राष्ट्रभाषा ताक तो ठीक से नहीं बोल पाते थे। हाँ, आक्रमणकारी भाषा से उन्हें बड़ा लगाव था। आए न आए, गिटपिट-गिटपिट जरूर करते थे। इलाके के इकलौते पंडित होने के कारण उनका जलवा था। हर कहीं उनकी पूछ-परख थी।’’ ‘पंडितजी दिन में पंडिताई कर चोला धारण करके कर्मकांड करवाते और रात को पैंट-शर्ट पहनकर कुकर्म कांड मंे लिप्त हो जाते थे। किसी ढाबे में जाकर मांस खाते, तो किसी बार में मदिरा पान करते। सुंदरी-फुंदरी के चक्कर में रहते, सो अलग। मांसहार के पीछे उनका एक तर्क था, जिसके कारण उन्हें, पंडित हो कर भी मांस खाने में कभी ग्लानी नहीं हुई। सुरा-सुन्दरी के शौक के कारण भी वे पेरशान नहीं हुए, कि नर्क भोगना पडे़गा। वे इस मामले में बड़े कांफिडेंटथे कि मरने के बाद वे सीधे स्वर्ग-लोक ही जायेंगे।’’ ‘राजन एक बार की बात है। राज्य में चुनाव हो रहे थे। जाति-धर्म के आधार पर प्रत्याशियों का चयन हो रहा था। पंडितजी को पता चला, तो वे भी जोर आजमाइश करने लगे। पंडितजी को यह बात अच्छे से पता थी कि जीवन का सच्छा सुख राजनीति में ही है। वे चाहते थे कि किसी तरह से टिकट मिल जाए। इसलिए वे राजनीतिक माफियाओं के चक्कर लगाने लगे।एक पार्टी के सरगना ने कहा, ‘‘पंडितजी, आपको टिकट देने में कोई एतराज नहीं है। आप तो बड़े पाॅपुलर आदमी हैं। लेकिन आप तो जानते हैं कि सारा खेल आरक्षण का है। यह सीट आदिवासी के लिए आरक्षित है। आप ठहरे पंडित। आपको टिकट देने का तो सवाल ही पैदा ही नहीं होता।’’ पंडितजी मुस्करा कर बोले, ‘‘ऐसा है भोले, पेशे से पंडित जरूर हूँ, लेकिन मैं मूलतः आदिवासी हूँ। मेरे दादा, परदादा और उनके भी परदादा, सबके सब पिछले पाँच सौ सालों से यहीं निवास कर रहे हैं। तो, हम हुए न आदिवासी।’’ सरगना हँस कर बोला, ‘‘लेकिन इससे बात नहीं बनेगी। हमे जंगल में रहने वाले आदिवासी चाहिए।’’ पंडितजी बोले, ‘‘मैं स्वभाव से जंगली रहा हूँ। कहंे तो टेªलर दिखाऊँ। एक-दो सी, डीभी बनावा कर रखी है।सरगना फिर हँसा, ‘‘इससे तो पार्टी की बदनामी होगी। हम ठेठ आदिवासी चाहते हैं।’’ पंडितजी बोले, ‘‘मैं ठेठ आदिवासी हूँ, भई। इसका प्रमाण है मेरे पास। मेरे पिता भविष्य-द्रष्टा थे। वे जानते थे कि कलजुग में ऐसी नौबत आ सकती है। इसलिए वे मरने से पहले आदिवासी बन गए थे। उन्होंने अपनी जाति परिवर्तित करा ली थी। यह सोचकर कि अगर बेटे की नौकरी करने की इच्छा हुई, तो उसे आरक्षण का लाभ मिल जाएगा, वरना पंडिताई तो जिन्दाबाद है ही। मूल आदिवासी तो बेचारा सीधा-सादा होता है। नकली या कनवर्टेडआदिवासी बड़ा चालू होता है, क्योंकि वह आदिवासी नहीं होता न! उसमें मक्कारी, बेईमानी, धोखेबाजी, खुराफात समेत नाना प्रकार की बदमाशियाँ बरकरार रहती हैं। अपनी इन्हीं प्रवृतियों के कारण वह सफल भी हो जाता है। मैं भी नकली आदिवासी हूँ, और ये अंदर की बात है, जो सिर्फ आप को बता रहा हूँ। आप तो मुझे टिकट दे दें। देखिए, मैं चुनाव कैसे जीतता हूँ।’’ सरगना को लगा, पंडित की बातों में दम है। बात हाइकमान तक पहुँची। पंडितजी टिकट पा गए। चुनाव हुए। पंडितजी ने खूब हाथ-पैड़ मारे, लेकिन होनी में तो कुछ और ही लिखा था। पंडितजी हार गए। जमानत जब्त हो गई सो अलग। उनके जीवन का एक सुनहरा अध्याय खुलने से पहले ही बंद हो गया। हे राजन, अब तुम मेरे इन प्रश्नों का उत्तर दो कि आखिर पंडितजी चुनाव क्यों हार गए? मांसहार के पीछे पंतिडतजी का तर्क क्या था? और सुरा-सुंदरी के आदी होने के बावजूद वे इस बात को लेकर निश्चिंत क्यों थे कि मरने के बाद वे सीधे स्वर्ग-लोक ही जायेंगे? सोच-समझकर बिलकुल सही उत्तर देना, वरना तुम्हारे सिर के टुकडे़-टुकड़े हो जाएंगे। वेताल की कहानी सुन कर विक्रमार्क वैसे भी बेचैन हो उठा था। फिर उत्तर देना उसकी मजबूरी भी थी, इसलिए इसने कहना शुरू किया, ‘‘आदिवासी होने का प्रमाण-पत्र पास होने के कारण पंडितजी टिकट हथियाने में तो सफल हो गए, लेकिन वे इस बात को भूल गये थे कि चुनाव केवल जाति-धर्म के आधार पर ही नहीं लड़े जाते। उसके लिए पैसे भी खर्च करने पड़ते हैं। लाखों, करोड़ों। पंडितजी ठहरे फटेहाल। जो कुछ भी कमाते थे, वह तो पीने-खाने में ही खर्च हो जाता था। हाइकमान ने भी उन्हें अंगूठा दिख दिया। जितने पैसे मिलने की उम्मीद थी, उतने भी नहीं मिले। पंडितजी का प्रतिद्वंद्वी भी नकली आदिवासी था, लेकिन वह बहुत पैसे वाला था। उसके पास बाप-दादाओं की अकूत बेनामी संपत्ति थी। उसके अनेक गोरख-धंधे भी थे। उसने पैसा पानी की तरह बहाया। धुंआधार प्रचार किया। शराब बाँटी। पैसे बाँटे। कपड़े-लत्ते बाँटे। मीडिया को भी मैजेज किया। बस, उसके पक्ष में ऐसा वातावरण बना कि वह रिकाॅर्ड मतों से जीत गया, और बेचारे पंडितजी की जमानत जब्त हो गई। रही बात मांसहार के तर्क की, तो पंडितजी को किसी ने यह ज्ञान दे दिया था कि मुर्गा-बकरी, तीतर-बटेर आदि खाने से प्राकृतिक संतुलन बना रहता है। अगर मनुष्य मांस भक्षण न करे, तो चारों तरफ पशु-पक्षियों की भरमार हो जाएगी। इसलिए प्राकृतिक संतुलन को जो काम पशु-पक्षी खुद कर लेते हैं, उसकी ठेकेदारी पंडितजी जैसे अनेक मनुष्यों ने ले ली थी। इसका एकमात्र कारण था, जीभ का पाशविक स्वाद। इस स्वाद को लेने के लिए पंडितजी मांस भक्षण को पुण्य-कार्य मानते थे। उनकी यही ज्ञान भी बाँटा गया था कि पूजा-पाठ करने से सारे गलत-सलत काम धुल जाते हैं और अंत काल में खुद भगवान हाथ जोड़कर कहते हैं कि आओ वत्स, तुम्हारे लिए स्वर्ग के द्वार खुले हुए हैं।’’ विक्रमार्क का मौन भंग होेते हो चुका था। यह देाख कर वेताल ठहाका लगा कर उड़न छू हो गया। यानी फिर डाल पर।


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