मंगलवार, 2 जून 2009

हैवानियत की मुसकान





सवाल राष्ट्रीय संपत्ति की है. क्या राष्ट्रीय संपत्ति अपनी नहीं होती?
एक आदमी अपनी बात को मनवाने के लिए राष्ट्रीय संपत्ति को जला कर राख कर देता है. तोड़-फोड़ कर बरबाद कर देता है. क्यों?
भारत को आजादी मिले 60 वर्ष से भी ज्यादा हो गये. लेकिन अभी तक हम राष्ट्रीय संपदा को अपना नहीं पाये. यह कितनी शर्म की बात है, आजाद भारत वासियों के लिए कि हम राष्ट्रीय संपत्ति को नष्ट कर डालते हैं और गर्व से सीना ताने मुस्कराते हुए अपनी फोटो खींचवाते हुए शर्म महसूस नहीं होता हैं.
60 वर्षों में हम सभ्य नहीं हुए. क्यों? राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुँचा कर खुश होते हैं, ऐसा क्यों? मन में हमारे सभ्य विचार क्यों नहीं उठते? ऐसे कई प्रश्न हैं, जिसका उत्तर आजाद भारत के लोगों को ही देने की जरूरत है. इस पर लम्बी बहस की जरूरत है. अपने आप से पूछने की जरूरत है कि आखिर इस शर्मशार करने वाली घटनाओं को अंजाम देतेे समय हम अपने विवेक को गिरवी क्यों रख देते हैं. हमारी आत्मा उस वक्त क्यों मर जातीहै? इन सवालों का जवाब आखिर कौन देगा? हमें ही तो देना होगा, क्या हमारी नैतिक जिम्मदारी नहीं है कि इन सवालों का जवाब हम दें?
पिछले दिनों बिहार के खुसरूपुर स्टेशन पर श्रमजीवी एक्सप्रेस का ठहराव को रद्द कर देने मात्र से ही लोग भड़क गये और देखते-ही-देखते उक्त गाड़ी को अग्नि के हवाले कर दिया गया. यह तो एक मात्र ताजा उदाहरण है,
आगे बानगी देखिए-
एक गाड़ी से कोई व्यक्ति कुचल जाता है और देखते ही देखते भीड़ उग्र हो उठती है. एक एक कर कई गाड़ियाँ क्षतिग्रस्त हो जाती हैं. बंद का आह्वान होता है. खुली दुकानें देख हम उग्र हो जाते हैं और देखते ही देखते दुकान लूट ली जाती है. अगजनी हो जाती है. स्टेशन पर ठहराव के लिए हंगामा होता है. और देखते ही देखते ट्रेन को आग के हवाले कर दिया जाता है. यह तो मात्र उदाहरण है. इस तरह की घटनाएँ भारत के कोने-कोने में प्रत्येक दिन घटतीं हैं. ऐसी सैंकड़ो घटनाएँ अब तक हो चुकी हैं और शायद भविष्य में भी होती रहेंगी.
इन घटनाओं में निजी संपत्ति से लेकर राष्ट्रीय संपत्ति का भारी नुकासान होता है. वर्ष भर का आकलन करें, तो यह संपत्ति शायद अरबों में होंगी. आखिर इसके पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है? यह भी एक प्रश्न हैं, जिसका जवाब हमें खोज कर देना है.
मनुष्य आखिर हिंसक क्यों हो जाता है. बस हो या रेल या दुकान किसकी है? उसका उपयोग कौन करता है. वह संपत्ति किसकी है? सबसे बड़ी बात है जलाने या तोड़-फोड़ करने के बाद क्या कभी हमें शर्म आती है, गर्व से मुस्कराने की ताकत और हिम्मत हमें कहाँ से आती है, कैसे मिलती है, इंसानियत पर हैवानियत कैसे हावी हो जाती है. समझ में नहीं आता.
पता नहीं क्यों हम चेतनाशून्य, विचारशून्य होते जा रहे हैं. पता नहीं हमारा हाथ सार्वजनिक संपत्ति को जलाने या तोड़-फोड़ करते वक्त काँपते क्यों नहीं.
क्या आप भी हमारी तरह सोचते हैं, यदि आप भी ऐसा ही सोचते हैं, तो अपनी प्रतिक्रिया दें कि आखिर हमे क्या करना चाहिए, जिससे कि हमारे हृदय का परिवर्तन हो सके.
आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुत अहम है.

विजय रंजन

2 टिप्‍पणियां:

  1. is lekh ke zareeye bahut hi sahi prshn uthaya hai .
    aaj ki sthti ka sahi chitran kiya hai-yah vicharniy hai..

    aisee mansikta desh ka aur khud ka nuksaan hi karaati hai.

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  2. मैं हमेशा से यही सोचता रहा हूँ....कई बार बहुत कुछ लिखा भी...मगर सब दफन हो जाता है....बदल कुछ भी नहीं पाता....सब कुछ त्राहिमाम-त्राहिमाम हो जाता है...और मैं रोता रह जाता हूँ...किसी को कह नहीं पता कि ऐसा मत करो....ऐसा मत करो....!!

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