शुक्रवार, 22 मई 2009

साम्प्रदायिकता के खिलाफ जनादेश

15वीं लोकसभा चुनाव ऐतिहासिक चुनाव साबित हुआ है. खबरों के ध्ंाधेबाजों एवं चुनाव पश्चात् और चुनाव परिणाम के पूर्व अटकलों में समय नष्ट करने वाले संस्थान और व्यक्तियों से लेकर ज्योतिषियों के सभी भविष्यवाणी कोे झूठलाते हुए, जो जनादेश आया है, वह कोई चांैकाने वाला नहीं है. ऐसा कई बार हो चुका है.  
 आज हमारे देश की अधिकांश जनता भयभीत है. उनके दिल में सामाजिक असुरक्षा के भाव भरे हुए है. वह अपने को अकेले और डरे-सहमे रूप में महसूस कर रही है. इसके चलते ही स्वार्थी और अवसरवादी नेता इन्हें आसानी से ठगते रहे हैं. कभी जातपात के नाम पर, तो कभी धर्म-समुदाय के नाम पर, तो कभी मंदिर-मस्जिद के नाम पर. लड़वाते और मरवाते रहे हैं. 
 भूख-प्यास और सामाजिक सुरक्षा के मुद्दे पर कभी अपना मुँह नहीं खोलने वाले ये नेता जरूरी सामाजिक मुद्दों पर कभी कोई आन्दोलन नहीं छेड़ा. अपने चुनावी एजेण्डा में कभी इसे शामिल नहीं किया. नतीजा हर बार जनता अपना गिरवी वोट से इन्हें राजा बनाती रही. लोकतंत्र का बेजा फायदा इन्हें पहुँचाती रही. ये नेता जो 5 साल पहले सड़कों पर मवालीगिरी करते थे, दो जून की रोटी भी नसीब न थी इन्हें, वे सांसद और विधायक बनते ही 3-5 साल मंे करोड़ों के मालिक बन बैठे. बादशाह बन बैठे, लेकिन अब जनता जाग रही है. पढ़ेलिखे युवाओं की भागीदारी राजनीति को एक दिशा प्रदान करने लगी है. 
कहने की जरूरत है कि राहुल  गांधी की राजनीतिक सोच ने देश में एक नया राजनीतिक माहौल पैदा किया है, जो भारतीय जनमानस को स्वविवेकी की राह पर पहँुचाने का काम किया है. जिसका  परिणाम हमने राजनीतिक चैतन्यता के रूप में देखा कि मतदान का प्रतिशत काफी कम था. उसके बाद भी कांग्रेस को बहुमत में आना तथा कुछ हठवादी एवं सांप्रदायिक पार्टी को छोड़कर छोटी-बड़ी पार्टियाँ कांग्रेस को अपना बिना शर्त सर्मथन दिया है. यह सब  क्या दर्शाता है? निश्चित रूप से यही कि भारतीय मानस अब चैतन्यता की स्थिति में आ रही है. अब वो मंदिर-मस्जिद के शोर के प्रदूषण से मुक्ति चाहती है. अब जनता स्वतंत्र होना चाहती है. अब वह खुले में सांस लेना चाहती है. अपने निश्चित जिम्मेदारी को निभाना चाहती है. ऐसे माहौल की आशा रखती है. 
अब स्वतंत्रता का असली हक पाना चाहती है. अब ध्ंाध्ेाबाज नेताओं से छूटकारा चाहती है. अपने अधिकार और कर्तव्य को भलीभांति समझने की कोशिश में जुट गयी है. वह अब सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ अपना गुस्सा दिखाने लगी है. इन्हें यह सब अब नहीं चाहिए. इन्हें रोटी, कपड़ा और मकान के अलावा सामाजिक सुरक्षा चाहिए. लेकिन कुछ प्रांत और क्षेत्रों में अभी भी सांप्रदायिक ताकतें प्रबल है. और इस चुनाव में वह जीत हासिल की है. उसका एक बहुत बड़ा कारण सामाजिक-आर्थिक-धर्मिक वातावरण हैं. इस पर जोरदार बहस की जरूरत है. 
फिलहाल इतना ही कह सकते हैं कि जो जनादेश मिला वह यूपीए को मिला है. अब उसकी रक्षा करना इनकी नैतिक जिम्मेदरी है. यदि वे चुनाव जीतने की खुशी में अंधे होकर अहंकारी होते हैं, तो जनता को गद्दी से उतार कर चैराहे पर बैठाने आ गया है. इसका हस्र सबने देखा लालू और पासवान के रूप में. 
निष्कर्ष तो यही निकलता है कि यूपीए के डाॅ0 मनमोहन सिंह और उनकी टीम को जनता ने एक चुनौती दी है कि वे जनहित में बेखौफ होकर कार्य करें. यदि इस चुनौती को पूरा नही कर पाते हैं, तो जनता जिस हाथ से घोड़े पर बिठाती है उसी हाथ से दुलत्ती के लिए घोडे़ के पीछे  भी फेक देती है. 
अरुण कुमार झा   

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