रविवार, 26 अप्रैल 2009

ऐसे नेता को लेकर क्या करोगे ?


धुमिल ने एक कविता के विषय में कहा था कि कविता में जाने से पहले/ मैं आपै से पूछता हूँ/ जब इससे न बन सकती है चोली! न चोंगा/ तब आपै कहो/ इस ससुरी कविता को/ जंगल से जनता तक ढोने से क्या फायदा? ठीक यही बात आज की राजनैतिक घटनाक्रम के संबंध में कहा जा सकता है कि ससुरी इस राजनैतिक लोगों को ढोने से क्या फायदा. जो आपको कुछ दे नहीं सकती, सिर्फ कुर्सी के लिए आपस में गाली-गलौज करती रहती हैं. नैतिकता के सारे मापदंड तोड़ देते हैं. आखिर आज की राजनीति है क्या? राजनीति में नैतिकता कहाँ बची है. एक नेता सुबह पार्टी से टिकट की आस में पार्टी के लिए कसीदे गढ़ता है. दोपहर टिकट नहीं मिलता, तो शाम को दूसरी पार्टी में जाकर पहली पार्टी के पैजामें उतारता है. पहली पार्टी का रिजेक्ट माल दूसरी पार्टी के लिए हीरा बन जाता है. कहाँ गयी नैतिकता, कहाँ गई पार्टी, कहाँ गयी पार्टी के प्रति बपफादारी? जहाँ तक पार्टी से टिकट का सवाल है, एक नेता को एक बार किसी क्षेत्रा से टिकट मिल गया और जीत गया, तो वह सीट उसकी पुश्तैनी हो जाती है. जब तक जिंदा रहेगें चाहे जीते या हारे वह सीट उनकी रिजर्व रहनी चाहिए. या फिर उनकी पत्नी या फिर उनके बेटे-बेटी के लिए सीट रिजर्व चाहिए. यदि नेता चल निकला तो अपने साथ-साथ अपने बेटे-बेटी-पत्नी सबको टिकट चाहिए. यदि नहीं चल सका, तो अपने स्थान पर अपने ही परिवार के किसी सदस्य को टिकट चाहिए. यदि टिकट नहीं मिला, तो पार्टी छोड़ देंगे या फिर बाप इस पार्टी मंे, तो बेटा उस पार्टी में. दूसरी पार्टियाँ इनको लपकने के लिए तैयार होती हैं. आपने पाँच वर्षों में क्या किया, क्षेत्र के लिए. क्या किया. सांसद निधि से कितना खर्च किया, यह सब कोई प्रश्न नहीं होता है, बस राजनीति हमारा धंधा है और इस ध्ंाध्ेा में परिवार के सभी को दुकान मंे बैठना है... यही है आज की राजनीति. दूसरा सवाल है कि पार्टियाँ ऐसे लोगों को क्यों सिर चढ़ाती है. कल जिसको टिकट नहीं मिला आज दूसरी पार्टी वहीं से टिकट दे देती है. बिना यह देखे हुए कि वह जीतेगा कि नहीं! दूसरे कि उनकी खुद की पार्टी में जो वर्षों से राजनीति कर रहा है, आस्था और निष्ठा लगा हुआ है, अब वह उस बाहरी के तलबे चाटने पर मजबूर हो जाता है. क्योंकि आलाकमान का निर्णय है. ऐसी स्थिति में मजबूत नेता या कार्यकर्ता विद्रोह करता है या पिफर पार्टी ही छोड़ देता है. वह सोचता है कि वह पिफर किसलिए राजनीति कर रहा होता है. राजनीति का अर्थ सेवा नहीं, बल्कि सत्ता होता है और हर किसी का एक ही मकसद होता है सत्ता और सत्ता के सहारे करोड़ों-अरबों की कमाई. यदि ऐसा नहीं होता, तो सड़क पर चलने वाले व्यक्ति के पास स्वीस बैंक में करोड़ों-अरबों की संपत्ति नहीं होती. न ही नेताओं के महानगरों में कोठी और प्लाॅट और फाॅर्म हाऊस नहीं होते. आज अधिकांश नेता करोड़पति हैं, यह जाँच का विषय है कि राजनीति में प्रेवेश के पहले उनकी संपत्ति कितनी थी. राजनीति में नैतिकता कहाँ हैं. यदि नैतिकता होती तो क्या नवीन पटनायक भाजपा को यूँ ही दुल्लती लगाते. जिस छत के नीचे नवीन पटनायक ने चैन की नींद सोयी, उसे ही ढाह कर अपना घर बना लिया. भाजपा बेआबरू होकर विवशता के आँसू बहाती रही. क्या है नैतिकता? रामविलास पासवान लालू यादव को कोस-कोस कर राजनीति की. दोनों का छत्तीस का आँकड़ा रहा है, पर नीतीश कुमार के सामने जीत के लिए दोनों ने अपने-अपने आदर्श, ईमानदारी छोड़कर एक हो गये. जिस हाथ से एक दूसरे को तर्पण करते थे, वही दोनो हाथ मिल गये. कहाँ है नैतिकता, सिपर्फ इसलिए कि नीतीश को मात देनी है? आपको याद होगा झारखंड के मसले पर निर्णय लेने के पहले लालू यादव के विदेश दौरे पर होने के कारण सोनिया गांध्ी ने इंतजार करना ठीक समझा. लालू को विशेष का दर्जा दिया, वहीं लालू और सोनिया टिकट बँटवारे को लेकर अलग हो गये. दोस्ती और विश्वास से बड़ा टिकट हो गया. चाहे यूपीए हो या एनडीए सब के सब गठबंध्न के बंध्न एक-एक कर खुल गये और अपने-अपने पजामे संभालने में लग गये. आज राजैतिक पार्टियाँ महत्वहीन हो गयी है. उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है. एक नेता दूसरी पार्टी छोड़ कर आता और आप उसे टिकट दे देते हैं. इसका मतलब क्या होता है. क्या उस क्षेत्रा में आपका कोई योग्य उम्मीदवार नहीं? उस क्षेत्रा में आपके कोई गंभीर उम्मीदवार नहीं या पिफर जो आया उससे उम्मीद करते हैं कि वही आपको एक सीट दिला सकता है. इसलिए आप उस क्षेत्रा के सारे कार्यकर्ता, नेता को भूल जाते हैं. पिफर आप राजनैतिक पार्टी कहाँ हैं. आपका अस्तित्व क्या है, जहाँ एक दूसरे दल आया व्यक्ति आप पर हावी रहता है. ऐसे में उस व्यक्ति का पहली पार्टी पर दबाव भी बना रहता है. टिकट दीजिए नहीं तो चले इसके पीछे एक कारण यह है कि अब पार्टी जीत का कोई आधर नहीं है. अब पार्टी नहीं व्यक्ति जीतता है. वह जीत कर पार्टी का नम्बर बढ़ाता है. इसलिए जाति हो या व्यक्ति पार्टी ऐसे लोगों को तलाशती है, जा ेउनका नम्बर बढ़ा सके. आज तीसरे मोर्चे या फिर चैथे मोर्चे की बात हो रही है. वह क्यों और किस लिए. दरअसल कोई भी पार्टी देश की पार्टी नहीं रही. क्षेत्रीय गठबंधन करके एक बड़ी पार्टी बनती है. आज अलग हर राज्य में सशक्त नेता उभरा है. चाहे व नीतीश कुमार हांे या नरेन्द्र मोदी या नवीन पटनायक या मायावती हांे या जयललिता या फिर चन्द्र बाबू नायडू या कोई और ये लोग कुल मिला कर 100-150 सांसद ले आते हैं और बड़ी पार्टियों को ब्लैकमेल करने की स्थिति में आते हैं. ऐसा पिछले दिनों से चल रहा है. ऐसी स्थिति में सरकार बनाने के लिए इन क्षेत्रीय पार्टियों की जरूरत होती है. 10-5 सांसद लेकर ये मजबूत स्थिति में होते हैं. इसका एक उदाहरण परमाणु डील के मुद्दे पर मतदान के समय का खेल है. क्या-क्या नहीं हुआ मतदान के लिए. कोई प्लेन से बीमार स्थिति में लाये गये, तो किसी को समझौते के तहत कुछ लेन-देन करना पड़ा. ऐसे में ये छोटे-छोटे दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे. राजनीतिज्ञों ने देखा कि पार्टी में दोयम दर्जे पर रहने से ज्यादा बेहतर है कि अपनी पार्टी बना लो और दो नम्बर से एक नम्बर बन जाओ महाराष्ट्र में शरद पवार कांगे्रस में दो नम्बर थे और पार्टी बना कर एक नम्बर बन गये और पार्टी की स्थिति चाहे जैसी भी हो वह कांग्रेस की पात बैठने लायक जगह बना लिए, इसी कारण देखते-देखते दल से 900 से ज्यादा पार्टियाँ इस देश में पंजीकृत हो गयीं. और इनकी चाँदी हो गयी. तीसरे मोर्चे या चैथे मोर्चे का मकसद भी यही था. छोटी-छोटी पार्टियों को मिला कर सत्ता पर काबिज होना था. चैथे मार्चे की जो बात चली लालू-मुलायम और रामबिलास की, उसका मतलब चुनाव में नम्बर गेम में सशक्त भूमिका निभाना रहा है. राजनीति में कोई स्थाई दोस्त-दुश्मन नहीं होता. राजनीति का मतलब सत्ता होता है. जनता के मत से सत्ता तक पहुँचना, पर इस में जनता कहीं नहीं होती. देश की जमीनी सच्चाई भूख, गरीबी, बेरोजगारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद-आतंकवाद की कोई भूमिका नहीं होती. आज तो नेताओं ने जमीनी सच को दरकिनार करके एक दूसरे को छोटा दिखाने में लगे होते हैं. दूसरे ने यह नहीं किया वह तो दीखता है, पर आपने क्या किया या फिर क्या करेंगे, इसकी कोई जिक्र नहीं होती. आप चावल एक रुपया दीजिए या मुफ्तए इससे देश की दशा और दिशा नहीं बदलने वाली. संसद में गंभीर चर्चाओं की जगह पर जूता फेका-फेंकी. हंगामा खड़ा करने से देश का भविष्य नहीं सुधरने वाला, जो नेता एक्स-वाई-जेड सुरक्षा मंे चलता है, कमांडों से घिरा रहता है, वह जनता को क्या दे सकता है. जो नेता सांसद कोष भी खर्च नहीं कर पाता, अपने क्षेत्र में घुम नहीं पाता. अपने क्षेत्र की जनता से मिल नहीं पाता, उससे क्या उम्मीद की जा सकती है. जिस देश की जनता कड़ी ध्ूाप में दो रोटी मुश्किल से जुगाड़ कर पाती है और उसके नेता एसी कमरे में बैठकर जूस पीता हो, उस देश में नेता से जनता क्या उम्मीद कर सकती है. गरीबी रेखा के नीचेे रहने वाले करोडों लोगों को करोड़पति नेता क्या देते हैं? इस गंदी राजनीति से जनता का भला होने वाला नहीं! जनता के पैसे से ऐशो आराम की जिन्दगी बिताने वाले इन करोड़पति नेताओं को जनता को जवाब एक न एक दिन देना ही होगा.

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