रविवार, 26 अप्रैल 2009

चुनाव चरखा






गाल बजाता, ताल ठोकता,
देता-सा मूँछों पर ताव,
आया फिर आ गया चीखता,
आँखें चमका रहा चुनाव;
तोरण-झंडे लगे अखाड़े,
सजे नये दंगल सब ठाँव,
उठा-पटक धींगामुश्ती के
बढ़-चढे हैं जोर-दबाव।
पाक-साफ वे खड़े किनारे
कुर्ता-बंडी सब चैचक्क,
महापुरुष का मुखमंडल है,
आकर्षक, चमचम, दकदक्क;
भीतर चलते दाँव-पेंच सब,
जोड़-तोड़ के ठकरमठक्क,
खेल नया कैसा खेला है,
जनता देख रही भौचक्क।
नये-नये नारे चल निकले,
नयी-नयी व्याख्याएँ सभी,
नयी-नयी क्रांतियाँ मचलतीं,
जमती भीड़ सभाएँ सभी;
नयी-नयी छापों के झंडे
हथकंडे अपनाएँ सभी;
जनता मछली बन जाती है,
जब वे जाल गिराएँ सभी।
दल तोड़े, दल नये बनाएँ,
जैसे जी में आए यार,
दलदल में जा देश धंसा है,
वे दलदल में करें शिकार;
भाषण बदले, नारे बदले,
बदले सब झंडाबरदार,
बदल रहे वक्तव्य दनादन,
नये बनाए रिश्तेदार। कोई गरु है,
कोई दादा, एक धतु के दो औजार,
वही काटते गले हमारे,
उन से ही अपना उद्धार;
वे मालिक हैं, वे राजा हैं,
उनकी सभी ओर जयजयकार,
जो गरीब है, जो बेकस है,
उस का जीवन बंटाधर।
पाँच साल पर बँटते सपने,
सपने नये सजाता देश,
पाँच साल पर आते हैं वे,
स्वागत में उठ आता देश;
धूसर में ही लहर उठाता,
लहरें लेता, जाता देश,
फिर उठता, ऊपर उतराता,
डूब रहा, उतराता देश।
दौरे पर निकले नेताजी,
शहर-शहर जा लांघें रोज।
कस्बे-कस्बे गश्त लगाएँ,
गाँव-गली सब धाँगे रोज;
कहीं हवा में शब्द उछालें,
नारे ऊँचे टांगे रोज,
ऊँचे चढ़ आवाज लगाएँ,
नीचे आ मत मांगे रोज।
बीए-एमे नहीं वे
ज्ञानी हैं आत्मप्रकाश
नहीं उम्र का उन पर अंकुश,
कुर्सी उन की करे तलाश;
उन की बातें सब से ऊपर,
सदा अमर वे हैं अविनाश,
उन के पाँवों तले है देश,
उन की बाहों में आकाश।
वे नेता हैं, जन-नायक हैं,
राजनीति के मर्मी लोग,
मूर्ख देश के मार्ग-प्रदर्शक,
परम मस्त, हठधर्मी लोग;
जलते उन के दिलों की आग,
से पाएँ सब गर्मी लोग,
वे शरीफ हैं, साधु पुरुष हैं,
हैं थोड़े बेशर्मी लोग।
वे नेता हैं, धनी नेत के,
बचन-क्रिया में सरल-समान
जितना गुप्त प्रकट उतना ही,
छोटे सभी मान-सम्मान;
सब उलझाकर रखें, न उलझें,
मिले न खोजे, एक निशान,
मांग रहे मत घर-घर घूमें,
फिर बिन बोले अंतर्धान।
देख रहे हम सारी बातें,
बीती आधी शती करीब,
आँसू पी लें, गम खा-खा लें,
इतना ही बस रहा नसीब;
आपाधपी, गहमागहमी,
लूट मची सब बेतरतीब,
दौलतवाले मौज-मजे में,
मरता है हर बार गरीब।
आंधी-आंधी दौड़ लगाएँ,
जरा न लें दम भर विश्राम,
नारा उन का, पेड़़ लगाओ,
लूट-लूट वे खाएँ आम;
चुनाव चरखा चलता जाए,
कभी न आए तनिक विराम,
हम भूखे-नंगे रह लें,
पर ऊँचा रहे देश का नाम!
डॉक्टर शिवशंकर मिश्र

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