शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

झारखंड सरकार चुनौती या समर्पण

  चुनाव परिणाम आने के बाद ही ‘‘दुल्हन वही, जो पिया मन भाये’’ के तर्ज पर झामुमो ने संकेत दे दिये कि सरकार वही, जो गुरुजी को मुख्यमंत्री बनाये’’ दूसरे यह कि ‘कुछ अच्छा होता है, तो दाग अच्छे हैं’ यानि कि साम्प्रदायिक पार्टी भाजपा को सर्फ एक्सल में धोकर दाग-धब्बे साफ कर दिये गये। अब उनके दिल में कोई मैल नहीं। झारखंड के लिए संघर्ष  कर के झारखंड अलग राज्य बनवाने में अहम भूमिका निभाने वाले गुरुजी का मानना है कि झारखंड उन्होंने जनता के लिए नहीं अपने लिए बनाई है, सो उनके रहते दूसरे कोई मुख्यमंत्री नहीं बन सकता। इस कारण उन्होंने चारे डाल दिये। देखना यह था कि चारा पहले कांग्रेस खाती है या भाजपा।
चुनाव पूर्व जो पार्टियाँ खुलेआम एक दूसरे को नंगा करने में लगी थी, चुनाव बाद आधी रात को बंद कमरे में बैठ कर कहने लगी- अरे जनता के बीच तो हम फ्रेंडली मैच खेल रहे थे। एक दूसरे को नंगा-नंगी करने का। अरे! हमाम मंे तो हम नंगे हैं, तो नंगा करना क्या। चलो अब मिलकर सब राज भोगंे। जनता की ऐसी-तैसी। कांग्रेस के कुछ उदास नेता और राजद पानी पी पी कर कोसने लगे कि कांग्रेस ने सरकार बनाने में देरी कर दी और भाजपा चुल्हे पर से हांडी उठाकर ले गयी, पर मामला कुछ और ही था। अगर कांग्रेस सरकार बनाना चाहती, तो उनके राज्यपाल के रहते किसकी हिम्मत कि वह सरकार बना लेती। दरअसल कांग्रेस या कहिए मैडम सरकार बनाना ही नहीं चाहती थीं। दरअसल गुरुजी का नक्सली प्रेम, सत्ता के लिए कुछ भी करने वाले, आपराधिक मामले और पूर्व के कारनामों से त्रस्त, ढीले प्रशासक, पार्टी कार्यकत्र्ताओं की लफंगेबाजी पहले देख चुकी थीं। ऐसे में कांग्रेस गुरुजी के उस सड़ियल घर में नहीं जाना चाहती थी, जहाँ मलेरिया के मच्छर भिनभिना रहे थे। दूसरे कि कांग्रेस लालू यादव से भी छुटकारा चाहती थी, क्योंकि बिहार में वह स्वतंत्र चुनाव लड़ने का मूड बना चुकी थी। ऐसे में वो यदि झारखंड में राजद के साथ सरकार बनाती, तो उसकी स्थिति यही बनती कि झारखंड में सैंया और बिहार में भैया। कांगेस इस स्थिति से बचना चाहती थी। तीसरे कि मुख्यमंत्री पद के लिए सुबोधकांत सहाय और बाबूलाल मरांडी में जोर आजमाइश हो रही थी। इसका हल निकालना भी कांग्रेस के लिए आसान नहीं था। चैथे कि कांग्रेस तोड़-जोड़ में हमेशा से माहिर रही है और उसे विश्वास था कि तीन महत्त्वकांक्षी टांगों पर सरकार नहीं चल सकती। यहाँ तक कि सत्ता पाने के लिए लालायित कुछ कांग्रेसी यह भी चाहते थे कि एड्स रोग से ग्रस्त कुछ निर्दलीय विधायकों के साथ कंडोम लगा कर साथ चलने में कोई हर्ज नहीं है। पर कांग्रेस आलाकमान यह जानती थी कि इस रोग में सावधानी की कितनी जरूरत है। सो इसे भी नकार दिया गया। अंततः सर्फ से धुले भाजपा और सत्ता के लिए लालायित झामुमो के गुरुजी ने सरकार बनाने की पहल की। जहाँ तक आजसू की बात है कांग्रेस हो या झामुमो दोनों पार्टियाँ यह जानती थी कि आजसू उस ढलती उम्र वाली औरत है, जिसे नौकरीवाला या व्यापार करने वाला दोनो तरह के लड़के पसंद है। यह समय की मजबूरी है। लड़के वाले को भी ऐसी सुन्दर, सुशील लड़की कहाँ मिलती है। सो कुछ ज्यादा दहेज देकर भी अपने घर में लाने को तैयार थे। दहेज तय हो गया और सुदेश महतो को गुरुजी ब्याह कर अपने घर ले आए। गुरुजी को इतना विश्वास है कि वे दहेज में इतना दे दिए हैं कि वो बेवफा नहीं बनेगी।
जहाँ तक चुनाव में जनता की सहभागिता की बात है, चुनाव के पहले और दूसरे चरण के बाद हाय-तौबा यह मची कि इस चुनाव में मतदाता उदासीन है और विभिन्न चैनलों पर तथा दिग्गजों के बीच चर्चा होती रही कि यदि मतदाता इसी तरह उदासीन रहे तो इस देश में लोकतंत्र का क्या होगा? सवाल यह भी उठाया जा रहा है कि भ्रष्टचार, नरेगा और मध्यान भोजन योजना की असफलता, मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले, नक्सली हिंसा, कानून-व्यवस्था, पलायन जैसे कौन-कौन मुद्दे इस चुनाव में मुद्दा बनेगा? और जनता किन-किन बातों पर विश्वास करेगी। दूसरे कि मतदाता राष्ट्रीय पार्टियाँ या क्षेत्रीय पार्टियाँ या फिर निर्दलीय तीनों में किस पर विश्वास करेगी? यहाँ तक यह भी कहा जाने लगा कि झारखंड की जनता बुद्धू है। वह तो पैसा और शराब पर बिकती है। परन्तु चुनाव परिणाम ने राजनीति के दिग्गजों, विश्लेषकों  को झूठला कर रख दिया। अगर मतदाता जागरूक नहीं रहते और पैसे के बल पर चुनाव जीता जाता, तो प्रदेश में राजनीति के दिग्गजों में कांग्रेस के  प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप बलमुचू, राजद अध्यक्ष गौतम सागर राणा, जदयू के अध्यक्ष जलेश्वर महतो, सीपीआई के अध्यक्ष भुवनेश्वर मेहता, के साथ-साथ विधानसभा अध्यक्ष आलमगीर आलम चुनाव नहीं हारते। राष्ट्रीय पार्टियों में कांग्रेस के 65 उम्मीदवारों में 27, भाजपा के 67 उम्मीदवारों में 19 की जमानत जब्त नहीं होती। जिन नक्सलियों के फरमान पर झारखंड बंद हो जाता है। अधिकांश जिलों में जिनकी सामानन्तर सरकार चलती है, गरीब गुरबों के लिए जान देने वाले नक्सली पृष्ठभूमि के पौलुस सुरीन को छोड़कर युगलपाल, सतीश चन्द्रवंशी, मसीहचरण पूर्ति, गणेश गंझू, सूर्यनारायण हंसदा (सभी झामुमो), राजद प्रत्याशी शेखर यादव तथा आजसू के प्रत्याशी कुलदीप गंझू चुनाव हार गये। मतदाताओं ने यह बतला दिया कि दिखाने वाले दाँत हमें पसंद नहीं। मतदाताओं ने इस बार 37 नये चेहरे को अपना प्रतिनिधि चुन तथा 22 को उलट-पलट कर यानि पुराने विधायकों को भेजकर बतला दिया है कि अब भी उसके बाजुओं में दम है, जिनके सहारे लोकतंत्र जिंदा है। मतदाताओं ने आठ महिलाओं को विधानसभा में भेज कर यह बता दिया है कि झारखंड की जनता महिलाओं को भी वह सम्मान देती है। एक बात जो सबों को कचोटती है, वह यह है कि 81 माननीय सदस्यों में से 26 पर हत्या, हत्या का प्रयास, डकैती, चोरी तथा 14 पर कत्ल का प्रयास, 14 पर चोरी का तथा 4 पर कत्ल जैसे आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं। इससे कोई दल अछूता नहीं रहा। जहाँ तक सत्ता संभालने वाली पार्टियों की बात है, झामुमो के 18 सदस्यों में से 17 पर, भाजपा के 18 में से 7 सदस्यों पर, आजसू के 5 में से 4 सदस्यों पर आपराधिक मुकदमें हैं। एक ओर जहाँ झामुमो के डुमरी के विधायक पर सर्वाधिक 14 मामलें हैं, वहीं झामुमो की ही शिबू सोरेन की पुत्रवधु विधायक सीता सोरेने आपराधिक मामलो से बरी हैं।
यह हाल है झारखंड विधानसभा का जहाँ आधे से अधिक विधायक आपराधिक मामले में फँसे हुए हैं। सवाल यह उठता है कि मतदाता क्या करे, कहाँ जाए। इनको टिकट कौन देता है? मतदाता के पास तो विकल्प कम ही है, क्योंकि जो चुनाव में खड़े होते हैं, उनका चरित्र ही ऐसा है और उसी के बीच से प्रतिनिधि चुनने का मौका मिलता है। ऐसे में पार्टियाँ ही कुछ कर पाने में सक्षम है, पर वे कुछ कर नहीं पातीं क्योंकि उन्हीं के बदौलत पार्टी चलती है।
गुरुजी को मुख्यमंत्री बनना था, सो बन गये। साथ ही साथ रघुवर दास और सुदेश महतो दोनों उप मुख्यमंत्री बने। दोनों को उप मुख्यमंत्री बनना राजनीति और गुरुजी दोनों की मजबूरी थी। आँकड़ों की दृष्टि से देखें तो 45 का आँकड़ा सरकार चलाने के लिए दमदार लगता है। अगर सब कुछ ठीक चले और सब ठीक रहा तो।
सवाल उठता है कि जब एक म्यान में दो तलवार रह नहीं सकते तो तीन तलवार कैसे रहेंगे। सरकार में आने के पहले भाजपा और आजसू ने पहले ही जता दिया है कि सरकार में आने का मकसद अपनी शक्ति को बढ़ाना है। यदि शक्ति बढ़ाने के क्रम में शक्ति प्रदर्शन होने लगे तो क्या होगा? भाजपा के साथ एक संकट यह भी है कि सत्ता पाने के लिए वह संघर्ष करती है, सत्ता पाती है, पर सत्ता को संभाल नहीं पाती। भाजपा के अन्दर सभी नेताओं की अपनी, अपनी दुकान है और अपनी दुकान चलाने के लिए ये आपस में टकराते रहते हैं। ऐसे में भाजपा के साथ हम तो डूबे सनम, तुम भी डूबो सनम वाली स्थिति आ जाती है। देखना यह है कि भाजपा इससे बच पाती है कि नहीं। आजसू के साथ ऐसा नहीं है। सुदेश महतो की सत्ता को चुनौती देने वाला उनकी पार्टी में कोई नहीं है। ऐसे में उनके लिए कोई मुश्किल या चुनौती नहीं है। वह सबको खिला कर खाने में विश्वास रखते हैं। हलांकि एक मात्र कमल किशोर भगत विरोध स्वरूप अपोलो में भर्ती हो गये। हाँ सबसे मुश्किल झामुमो के साथ है। धाकड़ विधायकों में से मंत्री के लिए चुनना मुश्किल और जोखिम भरा काम था। सबको खुश करना मुश्किल भी था। बड़ी मुश्किल से गुरुजी ने मंत्री के चार नाम तय किये तो साइमन मरांडी जाति का झंडा लेकर विरोध में उतर आये। और कहने लगे कि चूँकि वो ईसाई  हैं, इस लिए उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। उन्हें तकलीफ है कि 77 से वे विधायक है तथा उनकी पत्नी भी चार बार विधायक रह चुकी हैं। 33 साल से झामुमो की नाव चलाते रहे हैं, तो इस लिए इन जीवन में मंत्रीपद नहीं मिला तो जीवन ही बेकार है। पिछली बार जब  गुरुजी की नौका डूबी थी, तो नये नाविक के रूप में चंपई सोरेन का नाम मुख्यमंत्री के लिए उछला था। लेकिन इस बार वे मंत्री के लायक भी नहीं पाये गये। चंपई सोरेन तो कुछ अपने मुँह से नहीं बोल रहे पर विद्युत महतो ऐसा बोल रहे हैं। इसी तरह झामुमो के वरिष्ठ नेता और विधायक टेकलाल महतो आये तो थे मंत्री पद का शपथ लेने, पर मंत्रियों की सूची में अपना नाम नहीं पाकर राजभवन से निकल गये। देखना अब यह है कि रूठे,रहने वाले इन विधायकों किस निगम और प्रतिष्ठानों में अध्यक्ष पद और ललबत्तिया देकर खुश किया जाता है। ऐसा माना जा रहा है कि खादी बोर्ड के अध्यक्ष जयनन्दू को छोड़ कर सभी बोर्डों और निगमों में परिवत्र्तन  होंगे। एक मात्र जयनन्दू ही हैं, जो झारखंड बनने के बाद से ही हमेशा खादी बोर्ड की कुर्सी जम कर पकडे़ हुए हैं। जानकार कहते हैं कि इस बार भी वे अपनी हांडी आँच पर चढ़ा चुके हैं। देखना है आगे, आगे होता है क्या!
मंत्री तो बन गये। अब बारी थी विभागों के बँटवारे की। विभागों के बँटवारे को लेकर भी जिच कायम थी। गुरुजी के लिए भी मुश्किल भरा काम था। झारखंड का विकास सिर्फ एक विभाग के माध्यम से नहीं हो सकता। सारे के सारे विभाग अहम होते हैं, यदि मंत्री काम करना चाहें तो अपने कौशल से किसी भी विभाग से चमका सकता है। पर अमूमन ऐसा होता हुआ दिखाई नहीं देता है। विभाग के बँटवारे में सभी को इस बात की पड़ी होती होती है कि कौन विभाग मलाईदार है। किसमें कितने पैसे हैं। किसमें कमाई ज्यादा होती है। इसी को ध्यान में रखते हुए विभागों के लिए  मारामारी होती है। कमसे कम झारखंड में तो यही होता रहा है। मंत्रियों को अपने विभाग एवं विभाग के काम, उसके विकास से कोई मतलब नहीं होता। अगर ये अपने कामों में रूचि लेते होते, तो आज झारखंड कहाँ से कहाँ पहुँच गया होता, भ्रष्टाचार का प्रतीक बन चुका झारखंड इन्हीं सत्तालोलुप, पदलोलुप और पैसा लोलुप  नेताओं के कारण ही ऐसा बन गया है। इसी का फायदा ब्यूरोक्रेट भी उठाते हैं। आज पचासों आला अधिकारी बिहार से आकर झारखंड में जमे हुए हैं, जिन पर कई मामलों में केस चल रहे हैं। कई ऐसे भी हैं, जिनपर झारखंड के कई मामले हैं, पर किसी पर कार्रवाई नहीं होती । इसके अलावा दूसरे विभागों में भी जाकर मलाई खाने का भी प्रचलन है। झारखंड में कृषि की हालत बदतर है, इस विभाग में खाने-पीने के लिए उतना नहीं है सो इस विभाग के अधिकारी दूसरे विभागों में जमे हैं। तत्कालीन कृषि मंत्री नलिन सोरेन ने कृषि विभाग के कर्मचारियों को वापस बुलाने की बात कही थी। पर बात वहीं की वहीं रह गयी। चुनाव पूर्व कृषि सचिव  अमरेन्द्र प्रताप सिंह कृषि सेवा के वैसे अधिकारियों को अपने विभग में वापस लाने के लिए आदेश किये पर कई अधिकारी अपनी पैरवी और पैसा के बदलौत अभी भी अपनी जगह पर बने हुए हैं। इसी तरह से कई अन्य सुखाड़ विभाग के पदाधिकारी प्रशासनिक सेवा में आकर मजे से लूटपाट कर रहे हैं। चूँकि मंत्री ही सब नंगे थे, तो अफसरों ने भी नंगा होकर नंगई की। इस बार देखना होगा कि किस तरह का लूट का  खेल होता है।
जहाँ तक सरकार चलने और चलाने की बात है, कहीं कोई पेंच नहीं दीखता। सिर्फ इस बात का कि आपस में शक्ति प्रदर्शन न हो। कांग्रेस ने तिलंगे की सरकार की भविष्यवाणी कर रखी है कि ये ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली। और बाद में कांग्रेस ही तोड़ जोड़कर सरकार बनाने के काबिल होगी। यह इस बात पर निर्भर करता है कि असंतुष्ट कितने संतुष्ट रह पाते हैं। बदनामी की एक बात और है कि झामुमो और आजसू के कार्यकत्र्ता उग्र माने जाते हैं। झामुमो के कार्यकत्र्ता तो खुद को गुरुजी या प्रशासक से कम नहीं समझते। प्रखंड स्तर पर ठेकेदारी से लेकर रंगदारी तक करते देखे जाते हैं। ऐसे कार्यकत्र्ताओं से बचना भी जरूरी होगा और उनपर अंकुश भी लगना होगा।
दूसरा सबसे अहम् सवाल नक्सलवाद का है। चुनाव पूर्व राजनैतिक विश्लेषकों का अनुमान झामुमो के जीत प्रति उतना नहीं था। उनका मानना था कि इस बार गुरुजी  चूक जाएँगे। पर चुनाव का परिणाम इन विश्लेषकों को चैंका गया। परिणाम आने के बाद विश्लेषकों ने फिर से विश्लेषण किया और पाया कि झामुमो को जो सहयोग इनसे मिला वह काम कर गया। स्पष्ट रूप से तो नहीं पर कुछ विश्लेषकों का मानना है कि कांग्रेस ने जो नक्सल विरोधी मुहिम छेड़ रखी है, उससे बचाव के लिए इन नक्सलियों के पास झामुमो के साथ जाने के सिवा और कोई रास्ता नहीं था। समय न  आँकड़ों, और न ही विश्लेषणों पर जाने का है। सवाल यह है कि नक्सलवाद से प्रभावित झारखंड में नक्सलियों के सफाये का कांग्रेस का ऐलान का क्या होगा। क्या गुरुजी  कांग्रेस के साथ जायेंगे या फिर नक्सली के साथ रहेंगे। यह भी तय करना एक सवाल है।
तीसरा कि हममें राम तुममें राम, खंभे-खंभे में राम की तरह झारखंड के हर विभाग में घुस आये भ्रष्टचार से लड़ाई कैसे जीती जा सकती है। क्या जो मंत्रीगण हैं वे भी पूर्व की भाँति लूट में शामिल होंगे या फिर ये लोग आला अधिकारियों पर नकेल कसेंगे। इन अधिकारियों को मंत्रियों को उल्टा पाठ पढ़ाने में देर नहीं लगती। ये क्यों वर्षाें से पके पकाये हैं। अफसर तो वही हैं, 10 वर्षों में इनकी ड्राईविंग इतनी पक्की हो गयी है कि ये हर रास्ते पर गाड़ी चला लेते हैं। जहाँ मंत्री अरबपति थे तो ये आला अधिकारी करोड़पति थे। झारखंड की गाड़ी ठीक करने के लिए इन अधिकारियों पर चाबुक चलाना होगा। और तो और सचिवालय में बैठे बाबू की चमड़ी भी मोटी हो गई है। झारखंड बनने के बाद एक ही विभाग और एक ही टेबुल पर ये जमें पड़े हैं। टेबुल भी कमाई वाला और सुखाड़ वाला होता है। सो कमाऊ टेबुल को जो पकड़े हुए हैं वे पकड़ कर लटके हुए हैं। साहब के साथ हाथ मिलाकर दोनों हाथों से लड्डू लूटते हैं। आफिस में आवेदन आने से कुछ नहीं होता। आवेदन तभी बढ़ता है, जब आप स्वंय टेबुल तक चलकर न जाएँ और फाइल तभी निकलती है, जब फाइल पर पेपर वेट रखा जाए। कई विभाग के कर्मचारियों की हैसियत इतनी बढ़ गयी है कि वे काम कराने के ठेके भी लेते हैं। कहा जाता है, डायन भी एक घर छोड़ के अपना काम करती है, पर सचिवालय हो या टेªजरी या विभग में बैठे कर्मचारी अपने कर्मचारी भाई से पगार  से पेंसन तक का फाइल निपटाने के पैसे लेते हैं। कई कर्मचारी तो प्रखंड से जिला तक अपने दलाल फैला रखे हैं। किसी को काम करवाना हो या फंड लेना हो, तो इन्हीं के बदौलत सारा काम होता है।
झारखंड बना तो बिहार से कई कर्मचारी झारखंड में कमाई के ख्याल से आ गये, जबकि इनका घर-बार सब बिहार में था। वे महीने में झोले भर कर अपने घर पहँुचा आते हैं। यानि कि झारखंड  बनते ही सब स्पष्ट हो गया था कि यहाँ धुँआधार लुट चलेगा। और हुआ भी वही। इन कर्मचारियों से भी निपटना एक सवाल होगा। क्योंकि सारी सुविधओं से लैस इन कर्मचारियों की जबरदस्त लाॅबी है और एक साथ मिलकर लूट पड़़ने की इनकी शक्ति है।
एक सवाल और है- भ्रष्टचार के मामले जिनपर चल रहे हैं, जो जेल में बंद हैं, जो जेल से बाहर हैं या फिर जो फाइल आदेश की प्रतीक्षा में हैं उन पर सरकार का क्या रूख होगा। भ्रष्टाचारियों और सरकार में अभी तक भ्रष्ट लोगों से सरकार कैसे निबटेगी? सीबीआई ज्यादातर सरकार के हिसाब से चलती है। केस का क्या रूख हो, उस पर सीबीआई किस तरह कार्रवाई करे। यह सरकार के तालमेल के साथ चलता है। सरकार द्वारा कोई नयी फाइल शायद ही खुले व खुली हुई फाइल यदि धुल फाँकती नजर आये तो यह अचंभे वाली बात होगी।
जहाँ तक विकास योजनओं की सफलता की बात है, यहाँ कोई भी योजनाएँ सफल नहीं हो सकी। चाहे वह नरेगा हो या स्वर्णज्यन्ती रोजगार योजना या मध्यान भोजना योजना या कोई और। इसके पीछे के कारण यह है कि इन योजनाओं के लिए या यों कहिए झारखंड में किसी भी कार्य के लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है। यानि किसी की जिम्मेदारी तय नही है। अनाज स्टेशन पर पड़े पड़े सड़ गये। किसी की कोई जिम्मेदारी नहीं है। मध्यान भोजन योजना दो महीने चलती है, तो दो महीने बंद हो जाती है। किसी की कोई जिम्मेदारी तय नहीं है कि राशन कैसे उपलब्ध हो।  नरेगा की तो बात ही कुछ और है। इस योजना में एक मजदूर को मजदूरी 100 रूपये मिले इसके लिए 150 रूपये खर्च किये जा रहे हैं। नीचे से ऊपर तक अधिकारियों की फौज लगी है। फिर भी ठीक से नहीं चलती। चले भी तो कैसे ग्रामसभा से योजना स्वीकृत होकर जब वह जिला में पहुँचता है, तो जिले से योजनाओं की स्वीकृतिपत्र लेने के पूर्व कमीशन देनी पड़ती है। यही हाल इंदिरा आवास योजना का है। आवास की स्वीकृति तभी मिलती है, जब प्रखंड में लाभुकों द्वारा बैल, बकरी बेचकर साहबों को रुपये जाते हैं। जितनी भी योजनाएँ चल रही हैं, उसमें ऊपर से नीचे तक कमीशन तय है। फिर कैसे काम हो? सड़कों में अरबों रुपये लग गये, पर सड़के ज्यों की त्यों रहीं। सड़के इधर से बनी और उधर से उखड़ती चली जाती है। क्योंकि सड़कों का जीवन काल तय नहीं है। अगर है भी तो कितनी कार्रवाई हुई? कई सड़कों की फाइलें राजनीति की गलियारों में वर्षों से टहल रही हैं, पर हुआ कुछ नहीं। कहीं कुछ ठीक नहीं है। क्योंकि कोई जिम्मेदार नहीं है। मेरे एक मित्र ने एक बात बताई कि एक ठेकेदार काम करने के लिहाज से बिहार गये और कई विभाग में इस सिलसिले में मिले। उन्हें एक ही जवाब मिला पहले ठीक ठाक काम कीजिए फिर पैसे की बात कीजिए, परन्तु झारखंड की बात ही कुछ और है। यह कहाँ का सिस्टम है कि पहले कमीशन तय करो फिर चाहे जैसे काम करो। इस जाल से निकलना कठिन तो है, पर नामुमकिन नहीं। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति चाहिए। खतरे उठाने की हिम्मत होनी चाहिए और इसके विरूद्ध लड़ने का दम भी होना चाहिए।
सदी के पहले सूर्यग्रहण के साथ मकर संक्रान्ति में स्थान के साथ ही साथ शुभ दिन शुरू हो रहे हैं। नया साल में नयी सरकार के लिए हमारी ओर से शुभकामनाएँ। यह साल परीक्षा का साल है। देखना दिलचस्प होगा कि इस बार गुरुजी के लिए विष्णु भैया कौन बनेगा। और अपनी सीट गुरुजी के लिए छोड़ेगा। यह भी देखना होगा कि क्या इस बार भी कोई राजा पीटर बन कर गुरुजी को मात तो नहीं दे दे। यह भी देखना होगा कि झामुमो के सभी लार टपकाते लोगों को गुरुजी रोटी का कैसे इंतजाम करते हैं। यह भी देखना होगा कि भाजपा और सुदेश महतो को कैसे बाँधकर रखते हैं। यह भी देखना होगा कि सरकार बनाने से निराश कांग्रेस गुरुजी के ऊपर आपराधिक मामलों को किस तरह उछालती है और उनमें क्या निर्णय आता है। उससे से बड़ी बात यह होगी कि यदि उनके खिलाफ आदेश होगा (ईश्वर न करे) वैसी स्थिति  में राजनीति में आये तूफान को कैसे झेल पाते हैं। यह सब कुछ काल के गाल में दबा है। देखना यह है कि आने वाला समय झारखंड को क्या दे जाता है- काँटो का सेज या फुलों का ताज?
दृष्टिपात ब्यूरो

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें