रविवार, 26 अप्रैल 2009

ये कौन सा दयार है ?









भारत में आजकल चुनाव का मौसम है। १५वीं लोकसभा के गठन के लिए होने वाले इन चुनावों में बनते-बिगड़ते राजनीतिक समीकरणों को साफ़ देखा जा सकता है. हाल ही में एक चुनावी सभा में वरुण गाँधी का सांप्रदायिक बयान जहाँ फिर से भाजपा की पुराणी सांप्रदायिक नीतियों की तरफ संकेत देता है, वहीँ कांग्रेस का (कटा) हाथ आम आदमी के साथ रखने का दावा बरकरार है. वामपंथी पार्टियाँ तीसरे मोर्चे के गठन के बाद खुशियाँ मना रही हैं, लेकिन चुनाव के परिणामों को लेकर चिंता की लकीरें कामरेड्स के माथे पर साफ़ दिखाई दे जाती हैं. सबको बस यही चिंता सता रही है कि कुर्सी कैसे मिले?
वैसे आज़ादी के पहले राजनीतिक पार्टियों का स्वरूप कुछ और ही था. सभी पार्टियों का एक ही मकसद था "भारत की आज़ादी". इंडियन नेशनल कांग्रेस के अंतर्गत ही सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी हुआ करती थी. यदि कोई सोसलिस्ट पार्टी का सदस्य बनना चाहता था तो कांग्रेस पार्टी की सदस्यता उसके लिए अनिवार्य थी. कम्युनिस्ट पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही था। लोगों को जो विचारधारा पसंद आती, वे पार्टी के उसी धडे से जुड़ जाते थे.
जैसे-जैसे आज़ादी का वक़्त करीब आता गया, इंडियन नेशनल कांग्रेस में विचारधारा का अंतर मुखर होता गया और आपसी मतभेद उभर कर लोगों के सामने आने लगे. देश के स्वतन्त्रता अन्दोलानों में अग्रणी भूमिका निभाने वाले राष्ट्रपिता महत्मा गाँधी का कद भी आज़ादी मिलते ही बौना नज़र आने लगा. आज़ादी के बाद गाँधी जी इंडियन नेशनल कांग्रेस को भंग करना चाहते थे. उनका मानना था कि जब इंडियन नेशनल कांग्रेस ने अपना ध्येय प्राप्त कर लिया है तो अब उसे भंग कर किसी और नाम से एक राजनैतिक पार्टी बनाई जानी चाहिए जो देश में आर्थिक विषमताओं को दूर कर एक स्वच्छ और उन्नत समाज के निर्माण में सहायक हो. लेकिन पंडित जवाहरलाल नेहरु और सरदार वल्लभभाई पटेल सरीखे कद्दावर नेताओं नें निजी स्वार्थ के लिए इंडियन नेशनल कांग्रेस का नाम बदल उसे 'कांग्रेस' के नाम से आजाद राजनैतिक दल बनाये रखना उचित समझा. सोने की चिडिया कहलाने वाले इस देश को साम्प्रदायिकता की आग में झोंक दिया गया और निजी राजनैतिक स्वार्थ के लिए देश के दो टुकड़े कर दिए गए. अपने अबतक के जीवन काल में, शायद पहली बार, महात्मा गाँधी अपने आपको निरीह महसूस कर रहे होंगे।
गाँधी के इस कमज़ोर स्वरूप को 'समय' भी नहीं देखना चाहता था. ३० जनवरी १९४८ के दिन यमराज भी आये तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक नाथूराम गौडसे के रूप में जिसने अपने खोखले आदर्शों और संकीर्ण विचारधारा के कारण गरीबों और दलितों के मसीहा गाँधी की हत्या कर दी।
भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में हिस्सा लेने और उनके त्याग के लिए देश जहाँ नेहरु परिवार का ऋणी था, वहीँ आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरु की वजह से हमारे देश को भरी कीमत चुकानी पड़ी. शांति के कपोत(कबूतर) उडाने वाले नेहरु के कारन भारत को चीन के सामने घुटने टेकने पड़े और देश ने लालबहादुर शास्त्री जैसा एक दूरदर्शी और कुशल प्रधानमंत्री खो दिया. नेहरु जी ने देश के विकास के लिए रूस को अपना मॉडल बनाया जबकि विशेषज्ञों के अनुसार भारत की आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियां रूस से तनिक भी मिलती-जुलती नहीं थी जिसकी वजह से विकास के इस रूसी मॉडल को अपनाना भारत के हित में नहीं था।कश्मीर मामला भी इन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों की देन है. जब १९४७ में अंग्रेजों ने भारत के सभी रियासतों(जिनकी संक्या ५०० से भी ज्यादा थी) को आजाद घोषित कर दिया, तब तत्कालीन गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल ने इन सबको एक साथ मिला कर फिर से एक राष्ट्र का स्वरूप देने का बीड़ा उठाया। सरदार पटेल का यह प्रयास एतिहासिक था और पूरा देश आज भी उन्हें लौहपुरुष के रूप में अपने दिलों में जिंदा रखता है. लेकिन जब पटेल ने अपनी कूटनीति के तहत कश्मीर के राजा हरी सिंह को अपने साथ मिला कर कश्मीर को कबाइलियों से मुक्त करने के लिए कश्मीर में जब सेना भेजी तो आपसी मतभेद के कारण नेहरु ने उनकी सैन्य कार्रवाई को बीच में ही रोक दिया. इसका खामियाजा भारत आज भी पाकिस्तान शासित कश्मीर के रूप में भुगत रहा है. स्वतंत्रता मिलने के बाद सोसलिस्ट पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग कांग्रेस से अलग कर दिए गए। देश की बिगड़ती स्थिति और सरकार पर पूंजीवादियों के बढ़ते प्रभाव के बावजूद जब १९५२, ५७ और ६२ के आम चुनावों में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला, तब डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति बनाई. उनकी एस विचारधारा से उनके दो करीबी सहयोगी मधुलिमाया और जौर्ज फर्नांडीज खुश नहीं थे. १९६३ में कलकत्ता के एक सम्मेलन में तो फर्नांडीज ने डॉक्टर लोहिया के खिलाफ जमकर आज उगला कि वो तत्कालीन जनसंघ और शिवसेना जैसे सांप्रदायिक संगठनों से हाथ कैसे मिला सकते हैं? बाद में इन्हीं जौर्ज फर्नांडीज ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार की कैबिनेट में रक्षा मंत्री जैसा अहम् पद संभाला जिसमें भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बजरंग दल जैसे सांप्रदायिक संगठन शामिल थे.
अपने निधन के कुछ दिनों पहले दोकोटर लोहिया ने अपनी पत्रिका 'जन' के संपादकीय में समाजवादियों को सचेत करते हुए लिखा कि "राजनीति का साधारण कार्यकर्ता दर्शक हो गया है। वह चिपकू हो गया है और किसी न किसी बड़े नेता या मंत्री के साथ चिपके रहने में अपना कल्याण समझता है। वह अपने आपको किसी लायक नहीं बनता जबकि देश-विदेश की जानकारी और छोटी-बड़ी इत्तालायें और उनके विश्लेषण तथा सिद्धांतों के बारे में साधारण कार्यकर्ता को जानकारी होनी चाहिए, साथ ही उसे अपने कर्मक्षेत्र में भी कुछ करके दिखाना चाहिए. दरबारगिरी, चापलूसी और चुगलखोरी साधारण कार्यकर्ता के दुश्मन हैं, इसी के सहारे वह उठाना चाहता है और दूसरे उसकी नक़ल करने लगते हैं जिनके नतीजे बड़े कठिन होते हैं. यथास्थितिवाद का कफ़न भारत की राजनीति पर चढ़ गया है। सबलोग कुछ होना चाहते हैं, बन जाना चाहते हैं। कुछ करने की इच्छा प्रायः सबकी मर चुकी है और जिनमें है भी वह भी बहुत कमजोर हो चुकी है." गरीबों, दलितों, पिछडे और अल्पसंख्यकों के मसीहा डॉक्टर लोहिया का ये बेबाकपन, एक महान सोच और अद्भुत कार्यशैली उनके मरने के साथ ही दफन हो गए।इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में एक बड़ा सकारात्मक काम पंजाब से आतंकवाद का खत्म था लेकिन यही मामला उनकी मौत का बहाना बन गया. अपनी कैबिनेट के मंत्रियों के प्रति उनका रुख भी कुछ ज्यादा सख्त था. सूत्रों के अनुसार एक बार इंदिराजी के सचिव धवनजी ने किसी मंत्री को फ़ोन कर सूचित किया कि "हर हईनेस डिसायार्स, यू रिजाइन", तो दर के मारे मंत्री जी की धोती गीली हो गयी. इससे इंदिरा गाँधी के व्यक्तिव में तानाशाही की झलक भी मिलती है. २५ जून १९७५ को उनके तानाशाही व्यक्तित्व को समूचे देश ने महसूस किया जब इंदिरा गाँधी ने अपने खिलाफ चल रहे इलेक्शन पेटिशन मामले में(सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग करने के मसले पर) इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा अयोग्य करार दिए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री की कुर्सी नहीं छोड़ी और पुरे देश में इमर्जेंसी लागू कर दिया. इंदिरा गाँधी के इस पदलोलुपता को देखते हुए लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने देशव्यापी आन्दोलन छेड़ दिया। इस आन्दोलन को दबाने के लिए ही इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल घोषित कर अपने विरोधियों को किसी-न-किसी बहाने जेल में डाल दिया. १९९२ में बाबरी मस्जिद को गिरा कर साम्प्रदायिकता फैलाने और रामनाम को लोगों में बेंच कर सत्ता पाने वाली भारतीय जनता पार्टी की २७ दलों वाली गठबंधन सरकार ने विमान अपहरण मामले में कंधार जाकर आतंकवादियों को रिहा कर आतंकियों का मनोबल बढ़ा दिया। इन्ही के शासनकाल में देश की नाक "संसद" पर हमला हुआ। सियाचिन से भारतीय सेना को हटाकर शान्तिपाठ करने वाले कवि और तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने देश के सबसे बड़े पड़ोसी दुश्मन पकिस्तान से हाथ मिलाकर अंतर्राष्ट्रीय नोबल शांति पुरस्कार पाने का असफल प्रयास किया जिसके फलस्वरूप कारगिल में न जाने कितनी माँओं नें अपने बच्चे खो दिए और कितनी मांगें उजड़ गयीं। देश में आतंकी हमलों का जो सिलसिला १९९३ में बम्बई से शुरू हुआ, अटलजी के कार्यकाल में पला-बाधा और मनमोहन सिंह की सरकार में जवान हुआ.
कुमार स्वस्तिप्रिय

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें