शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

जमाखोर लाल लाल

‘सैंया भले कोतवाल, तो डर काहे का’ जी हाँ! जिस देश में कृषि मंत्री शरद पवार की तरह कोतवाल हो वहाँ के जमाखोर भला क्यों डरे। किससे डरे। पहले थाली से सब्जी गायब हुई फिर दाल के लाल पड़े और देखते ही देखते कृषि मंत्री कान में तेल डाल गये। और अब दूध की बारी है। वैसे तो वे कहते हैं कि वे ज्योतिषी नहीं हैं, पर सच मानिय वे ज्योतिषी से कम नहीं। गणित लगा कर भविष्यवाणी कर देते हैं कि किस चीज का दाम बढ़ने वाला है। शरद पवार मुंम्बई के दादा हैं। इनके सामने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की नहीं चलती। अगर चलती होती, तो अब तक शरद पवार की खिंचाई कर चुके होते। मँहगाई चरम सीमा पर है। थमने का नाम नहीं ले रही है। पर केन्द्रीय सत्ता चिंतित नहीं है। अथशास्त्री मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र फेल हो चुका है। दाल, चीनी एवं अन्य खाद्य सामग्री के दाम में बेतहाशा वृद्धि के लिए उनके पास तरह तरह के बहाने हैं। सीधे तौर पर कह देते हैं कि मँहगाई का सामना करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं। फिर आप क्या कह सकते हैं? पता नहीं कोई मूल्य सूचकांक और आर्थिक विकास दर नाम का कोई चीज होती है। प्रधानमंत्री उसी थर्मामीटर पर चलते हैं। मँहगाई, गरीबी, बेरोजगारी जाए चुल्हे के भांड़ में। अगर विकास र बढ़ रहा है, तो समझिए अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के हिसाब से देश ठीक चल रहा है।
चीजों के बढ़ते दाम के पीछे कम उत्पादन बताया जा रहा है, तो इसी अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में तेजी कैसे? लेकिन आम उपभोक्ता सवाल कर रहा है कि उत्पादन मे कमी या विदेशों से आवक की कमी के कारण मँहगाई है, तो बाजार मे चीजों की उपलब्धता कैसे? पूरे देश मे किसी भी दिन इस बात का रोना नहीं रोया गया कि आज अमुक वस्तु बाजार में उपलब्ध नहीं है। इससे साफ है कि बाजार में उपलब्धता का संकट नहीं है। हुआ यह है कि आज बाजार में जो चीजें 10 रुपये की है, वो कल 12 रुपये और परसो 15 रुपये में उपलब्ध होने लगी। इसका सीधा लाभ जमाखोरों और कालाबाजारियों को मिला। हर दिन उनकी कमाई लाखों-करोड़ों में बढ़ती गयी। यह रोग देखते ही देखते सभी खाद्य पदार्थों में स्वाईनफ्लू की तरह फैल गया। कहने को तो देश में कृषि मंत्री भी हैं। खाद्य मंत्री भी हैं। पर इनका सरोकार न खाद्य से है न कृषि से ही। न जनता की कठिनाईयों से है। अगर मान लिया जाए कि सचमुच देश में कृषि उत्पादन में कमी आयी है, तो केन्द्र में बैठी सरकार इसका अनुमान लगाकर आयात क्यों नहीं की? व्यवस्था करना, तो उसी का काम है। दूसरी सबसे बड़ी बात यह है कि देश में वितरण की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है। इसका भी लाभ व्यपारी उठाते रहे हैं। खैर जो हो मीडिया द्वारा शर्म-शर्म करने के बाद भले ही सरकार को थोड़ी बहुत शर्म आये और मूल्य वृद्धि के खिलाफ जमाखोरों से निवेदन करें और ये लोग दो-चार रुपये कम कर के भाई-भाई का रिश्तेदारी निभायें। यह वही  बात होगी कि सौ कदम आगे चलकर दो कदम पीछे चल। दो कदम पीछे चलने का ढिढोरा तो पीटा जाएगा पर 98 कदम आगे बढ़ने का कोई जिक्र नहीं होगा।
हो भी क्यों नहीं। इस देश में विपक्ष है ही नहीं। मंत्रियों को देश दुनिया की चिंता नहीं है। देश में आंतरिक अव्यवस्था तो है ही। तो दूसरी तरफ चीन, पाकिस्तान नेपाल, श्रीलंका पर भी दवाब डालने में मनमोहन सरकार फेल हो गयी। वैसे में खास खबर यहाँ यह है कि भूतल परिवहन मंत्रालय इंदिरा इज इंडिया के तर्ज पर सोनिया एण्ड मनमोहन इन इंडिया के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग पर हर 25 किलोमीटर पर सोनिया-मनमोहन की तस्वीर लगाने की तैयारी मे लगा है। अनुमान है कि 14 से 25 करोड़ रुपये खर्च आयेंगे। वैसे सरकार सफाई दे रही है कि यह खर्च सड़क बनाने वाली कम्पनी करेगी। पर कोई भी कम्पनी अपना घर बेच कर पैसे नहीं लगाएगी, बल्कि जुगाड़ करेगी। गुणवत्ता को कम करके या फिर ऊपर से।
विजय रंजन

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